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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
महाकाव्यों में वराङ्गचरित सर्वप्रथम महाकाव्य होने के साथ ऐतिहासिक दृष्टि से भी एक महत्त्वपूर्ण महाकाव्य सिद्ध होता है। (२) धनञ्जयकृत द्विसन्धान (८वीं शती ई०)
सन्धान नामान्त महाकाव्यों की परम्परा में द्विसन्धान महाकाव्य सर्वप्रथम महाकाव्य है । इसका अपर नाम 'राघव-पाण्डवीय' भी है क्योंकि इसमें राम-कथा एवं पाण्डव-कथा समानान्तर रूप से चलती हैं । द्विसन्धान महाकाव्य का रचनाकाल सुनिश्चित नहीं है । प्रो० भण्डारकर द्विसन्धान के लेखक धनञ्जय को सन् ६६६ई. से ११४७ ई० के मध्य रखते हैं।' उपाध्ये महोदय का अनुमान है कि धनञ्जय का अस्तित्वकाल ८०० ई० होना चाहिए किन्तु यह किसी भी रूप से भोज के समय (११वीं शती का मध्य भाग) से परवर्ती नहीं हो सकता।२ नेमिचन्द्र शास्त्री महोदय ने भी द्विसन्धान महाकाव्य का स्थितिकाल ८वीं शती के लगभग ही स्वीकार किया है । 3 डा० हीरालाल द्वारा इस सम्बन्ध में एक महत्त्वपूर्ण सूचना दी गई है । उन्होंने धनञ्जय के अनेकार्थनाममाला को धवलाटीका (७४८-८१६ ई०) द्वारा उद्धृत करने की ओर ध्यान आकर्षित किया है ।४ इस तथ्य द्वारा धनञ्जय का स्थितिकाल निर्धारित करना सहज हो जाता है। धनञ्जय ८१६ ई० से पूर्व विद्यमान थे तथा द्विसन्धान महाकाव्य का रचना काल किसी भी रूप से नवीं शताब्दी ई० से परवर्ती नहीं हो सकता।
द्विसन्धान महाकाव्य में १८ सर्ग तथा ११०५ पद्य हैं। महाकाव्य के सभी लक्षणों का इस महाकाव्य में सुन्दरता से समावेश किया गया है ।५ वैसे तो द्विसन्धान की कथा गौतम द्वारा राजा श्रेणिक के लिए कही गई है, किन्तु
१. द्विसन्धान महाकाव्य, सम्पा० खुशालचन्द गोरावाला, दिल्ली, १९७०,
भूमिका, पृ० १७ २. हीरा लाल जैन, आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्याय, द्विसन्धान, भूमिका,
पृ० २३ ३. नेमिचन्द्र शास्त्री, संस्कृत काव्य०, पृ० ३६४-६५ ४. तु०-हेतावेवं प्रकाराद्यः व्यवच्छेदे विपर्यये। प्रादुर्भावे समाप्तौ च इति शब्दं विदुबुर्धाः ॥
-धवला टीका, अमरावती संस्करण, प्रथम भाग, पृ० ३८७ ५. विशेष द्रष्टव्य-नेमिचन्द्र शास्त्री, संस्कृत काव्य०, पृ० ३७१ ६. तु०-'अनुज्ञया वीरजिनस्य गौतमो गणाग्रणीः श्रेणिकमित्यवोचत ।' - -द्विसन्धान, १.६