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साहित्य समाज और जैन संस्कृत महाकाव्य
प्रतिनायक विशाखनन्दि । नायक के सभी उदात्त गुण भगवान् महावीर में पाए जाते हैं। महावीर एवं विशाखनन्दि का कई जन्मों तक विरोध दिखाया गया है जिसके परिणाम स्वरूप कवि ने सफलता से विशाखनन्दि का प्रतिनायक के रूप में चित्रण किया है। महाकाव्य में देश, वन, वसन्त, सन्ध्या, प्रभात, पर्वत, समुद्र, द्वीप तथा विवाह, सम्भोग, राजमन्त्रणा, दूतप्रेषण, युद्धप्रयाण एवं युद्धवर्णन आदि वर्ण्य विषयों का सफलता से अङ्कन किया गया है । (६) हरिचन्द्रकृत धर्मशर्माभ्युदय (१०वीं शती ई०)
हरिचन्द्रकृत धर्मशर्माभ्युदय का स्थितिकाल सुनिश्चित नहीं है । श्री नाथूराम प्रेमी द्वारा दी गई सूचना के अनुसार पाटन की धर्मशर्माभ्युदय की प्रतिलिपि (सन् १२३० ई०) के अन्त में यह उल्लेख मिलता है कि वि० सं० १२८७ में हरिचन्द्रकृत धर्मशर्माभ्युदय महाकाव्य की प्रतिलिपि रत्नाकरसूरि के आदेशानुसार कीर्तिचन्द्र गणि द्वारा लिखी गई ।' इससे स्पष्ट हो जाता है कि १२३० ई० से पूर्व धर्मशर्माभ्युदय की रचना हो चुकी थी। पं० कैलाश चन्द्र शास्त्री महोदय ने धर्मशर्मा० पर चन्द्रप्रभ० तथा हेमचन्द्र के योगशास्त्र के प्रभाव को दिखाते हुए हरिचन्द्र का समय वि० सं० १२०० (११४३ ई०) निर्धारित किया है ।२ श्री अमृतलाल शास्त्री ने भी पं कैलाशचन्द्र जी का समर्थन किया है । डा० नेमिचन्द्र शास्त्री का मत है कि वर्षमान चरित (६८८ ई.) के लेखक असग ने हरिचन्द्र के धर्मशर्माभ्युदय का अनुसरण किया है, न कि हरिचन्द्र ने असग का। उनके अनुसार धर्मशर्मा० से नैषधचरित भी प्रभावित हुआ है । अतः धर्मशर्माभ्युदय का समय १०वीं शताब्दी ई० रहा होगा।
धर्मशर्माभ्युदय में २१ सर्ग हैं। 'धर्म' तथा 'शर्म' अर्थात् शान्ति का 'अम्युदय' महाकाव्य का मुख्य उद्देश्य है अतः इसका नामकरण भी 'धर्माशर्माभ्युदय' किया गया है। धर्मशर्माभ्युदय को नेमिचन्द्र शास्त्री ने शास्त्रीय महाकाव्य की संज्ञा दी है। महाकाव्य के लक्षणों के अनुसार इसका प्रारम्भ मङ्गलाचरण से होता है । पूर्व कवि प्रशंसा, सज्जनश्लाघा एवं दुर्जन निन्दा की चर्चा महाकाव्य के प्रारम्भ में की गई है। महाकाव्य के वर्ण्य-विषय हैं-नगरवर्णन, पर्वत वर्णन, प्रभात वर्णन, सन्ध्यावर्णन, ऋतु वर्णन, कुमारोदय, विवाह, पानगोष्ठी, सुरत वर्णन, सलिल क्रीड़ा, आदि । निःसन्देह धर्मशर्माभ्युदय महाकाव्य एक उत्कृष्ट सरस काव्य है जिसमें कवि ने अनेक स्थानों पर कौतुकावह तत्त्वों का सुन्दरता से विन्यास किया है। सज्जन प्रशंसा
१. नेमिचन्द्र शास्त्री, संस्कृत काव्य०, पृ० २३५, पाद टि० ६ २. अनेकान्त, वर्ष ८, किरण १०-११, पृ० ३७६-३८२ ३. जैन सन्देश, शोधांक, ७, मथुरा १६६०, पृ० २५०-५४