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साहित्य समाज और जैन संस्कृत महाकाव्य
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महाकाव्यों के समकक्ष ही है । केवलमात्र एक सर्ग के अधिक होने के कारण वराङ्गचरित के महाकाव्यत्व की अवहेलना करना उचित जान नहीं पड़ता है । महाकाव्य लक्षणों की दृष्टि से वराङ्गचरित एक उत्कृष्ट महाकाव्य सिद्ध होता है । वराङ्गचरित में महाकाव्योचित प्रतिपाद्य विषयों का वर्णन उपलब्ध होता है । वराङ्गचरित के नायक बाईसवें तीर्थङ्कर नेमिनाथ के समकालिक 'वराङ्ग' हैं । वराङ्ग धीरोदात्त नायक के गुणों से युक्त हैं ।
नायक के
वराङ्गचरित की कथावस्तु का सम्बन्ध नायक वराङ्ग के पितृवंश से लेकर पुत्र के विवाह एवं राज्याभिषेक पर्यन्त की घटनाओं से है । वराङ्गचरित की तुलना अश्वघोष के सौन्दरनन्द एवं बुद्धचरित से की जा सकती है । अश्वघोष ने इन दोनों महाकाव्यों के माध्यम से बौद्ध धर्म का प्रचार किया तो जटिल मुनि ने भी वराङ्गचरित में जैन धर्मं एवं दर्शन के मौलिक सिद्धान्तों को निबद्ध किया है । चौथे सर्ग से दसवें सर्ग तक तथा छबीसवें एवं सत्ताइसवें सर्गों में विशुद्ध रूप से जैन धर्म एवं दर्शन का उपदेश दिया गया है तथा इन नौ सर्गों का महाकाव्य के मूल कथानक से कोई विशेष सम्बन्ध भी नहीं है । यही कारण है कि वराङ्गचरित को 'धर्मकथा' एवं 'महाकाव्य ' की दोनों संज्ञाए दी जाती हैं । इसे पौराणिक महाकाव्य की संज्ञा भी दी गई है ।' हरिवंशपुराणकार जिनसेन वराङ्गचरित से बहुत प्रभावित थे -
वराङ्गनेव सर्वाङ्गैर्वराङ्गचरितार्थ' वाक् । कस्य नोत्पादयेद्गाढमनुरागं स्वगोचरम् ॥
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वराङ्गचरित में ७वीं देवीं शताब्दी की दक्षिण भारत की विशेषकर कर्नाटक की युगीन परिस्थितियाँ प्रतिबिम्बित हैं । इस काल में दक्षिण भारत में जैन धर्म उन्नत दशा में था । कवि ने सुन्दर ढंग से जैनेतर मतों का खण्डन किया है । ब्राह्मण धर्म के यज्ञों, दानों, तथा अन्य धार्मिक एवं सामाजिक विश्वासों की वराङ्गचरित में खुलकर निन्दा की गई है । वर्णाश्रम व्यवस्था एवं पुरोहितवाद पर जटिल मुनि ने व्यंग्यात्मक प्रहार किया है। 3 दूसरी ओर वराङ्गचरित में तत्कालीन जैन धर्म के अभ्युदय के प्रमाण प्राप्त होते हैं । वराङ्गचरित में अनेक विशाल जैन मन्दिरों का वर्णन प्राप्त होता है । इसके अतिरिक्त वराङ्ग द्वारा एक विशाल जिन मन्दिर का निर्मारण भी करवाया गया। इस प्रकार शोध प्रबन्ध के विवेच्य
१. उपाध्ये, वराङ्गचरित, भूमिका, पृ० ६८
२. जिनसेनकृत हरिवंश पुरागा १३५: माणिक चन्द्र- दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, पुष्प ३१-३२, बम्बई
३. वराङ्ग०, सर्ग—२५
४. वही, सर्ग
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