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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
दी जाती है ।' श्वेताम्बर परम्परा में पुराणों के अन्तर्गत त्रिषष्टि शलाका पुरुषों का चरित भी वरिणत होता है। हेमचन्द्र कृत 'त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित' इसका उदाहरण है। विन्टरनिट्ज के अनुसार भी महाकाव्यों को दिगम्बर सम्प्रदाय 'पुराण' तथा श्वेताम्बर सम्प्रदाय 'चरित' के नाम से निबद्ध करते थे।२ पुराणोक्त कथानों का अधिकांश रूप से धर्म के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। पुराणों की कथाएं साधारण काव्यों अथवा महाकाव्यों की कथानों की अपेक्षा अधिक सत्य एवं प्रामाणिक मानी जाती हैं।
जैन संस्कृत 'पुराण' भी उपर्युक्त पुराण सम्बन्धी विशेषतों से युक्त होने भर भी 'महाकाव्य' शैली से बहुत प्रभावित हैं। हेमचन्द्र कृत 'त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित' पुराण को 'महाकाव्य' भी कहा जाता है इसके अतिरिक्त अनेक दिगम्बर एवं श्वेताम्बर परम्परा के पुराण महाकाव्योचित वर्ण्य विषयों से भी विशेष प्रभावित हैं। जैन संस्कृति के अधिकांश शलाका पुरुषों के जिन चरितों को परवर्ती अलङ्कृत जैन चरित काव्यों में निबद्ध किया गया है, उनमें से अधिकांश जैन पुराणों से ही स्रोत ग्रहण करते हैं। इस कारण जैन संस्कृति के पुराणों को महाकाव्य विकास की प्रथम धारा के महाकाव्यों के समकक्ष रखा जा सका है । परिणामतः पौराणिक वैशिष्ट्य से युक्त इन ग्रन्थों को जैन संस्कृति के 'विकसनशील महाकाव्यों' की संज्ञा दी जा सकती है तथा इनसे कथानक ग्रहण करने वाले द्विसन्धान प्रादि परवर्ती जैन संस्कृत 'चरित' तथा 'चरितेतर' महाकाव्यों को जैन संस्कृति के 'अलङ्कृत शैली' के महाकाव्यों के रूप में स्पष्ट किया जा सकता है। जैन संस्कृत अलङ्कृत महाकाव्य
जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि महाकाव्य विकास की द्वितीय धारा अलङ्कृत महाकाव्यों के नाम से प्रसिद्ध है। जैन साहित्य में भी द्वितीय धारा के महाकाव्यों की रचनाएँ हुई । ब्राह्मण संस्कृति के पञ्चमहाकाव्यों में ही महाकाव्य के शिल्पविधान का काव्यशास्त्रीय रूप उत्तरोत्तर विकसित होता रहा था। कालिदास के 'रघुवंश' एवं 'कुमारसम्भव' महाकाव्यों में यद्यपि महाकाव्य के स्वभाविक लक्षण चरितार्थ होते हैं किन्तु आग्रह पूर्वक महाकाव्य के शास्त्रीय लक्षणों का अनुकरण करना इन महाकाव्यों की प्रवृत्ति नहीं है । इसलिए प्रायः इन्हें 'रीतिमुक्त' की संज्ञा भी दी जाती है। जबकि इसी धारा के 'बृहत्त्रयी' के अन्तर्गत आने वाले
१. नेमिचन्द्र शास्त्री, आदिपुराण में प्रतिपादित भारत, पृ० १८ २. Winternitz, M., Jainas in Indian Literature, Indian Culture,
Vol. I., p. 149