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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
व्याख्या करना, ' 'धर्म'कथा' कहना ?, पुराणों को भी 'महाकाव्य' संज्ञा देना 3 आदि । जैन संस्कृत महाकाव्यों का अधिकांश रूप से चरितनामान्त होना एक उल्लेखनीय विशेषता है । किन्तु सभी चरितनामान्त काव्य महाकाव्य नहीं हैं । अतः इन महाकाव्यों के विशुद्ध महाकाव्यत्व का मुख्य आधार आचार्यों द्वारा प्रतिपादित महाकाव्य के लक्षण तथा महाकाव्योचित गरिमा को ही मानना चाहिए । कुछ महाकाव्य यद्यपि महाकाव्य के लक्षणों के अनुसार शायद महाकाव्यत्व संज्ञा प्राप्त भी कर लें किन्तु पाण्डित्य प्रदर्शन यथा अन्य कृत्रिम काव्य शैली का प्रतिपादन करना ही मुख्य उद्देश्य होने के कारण सामाजिक दृष्टि से इनका महत्त्व कम हो जाता है । सप्त-सन्धान आदि महाकाव्य इसी प्रकार के महाकाव्य हैं । स्मरण रहे कि ब्राह्मण संस्कृति की धारा में भी महाकाव्यों के अस्तित्व की एक दीर्घ परम्परा रही है किन्तु केवल मात्र पंच महाकाव्यों को ही ' महाकाव्यत्व' के रूप में लोकप्रियता मिली। जैन महाकाव्यों को पांच भागों में विभक्त किया जा सकता है - (१) चरितनामान्त महाकाव्य, (२) चरितेतर महाकाव्य, (३) सन्धान महाकाव्य ( ४ ) प्रानन्द महाकाव्य तथा ( ५ ) ऐतिहासिक महाकाव्य
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(१) जैन संस्कृत चरित महाकाव्य
संस्कृत चरित महाकाव्यों की परम्परा अश्वघोष के बुद्धचरित से प्रारम्भ हो चुकी थी । जैन कवियों ने भी चरित काव्य की परम्परा को विशेष रूप से समृद्ध किया । प्राकृत 'पउमचरिउ' काव्य से प्रेरणा प्राप्त कर रविषेण ने सर्वप्रथम 'पद्मचरित' नामक जैन संस्कृत पुराण की रचना की । तदनन्तर अलंकृत शैली के महाकाव्यों में सर्वप्रथम जैन संस्कृत महाकाव्य जटासिंहनन्दि का ' वराङ्गचरित' है । वास्तव में शैली की दृष्टि से जैन संस्कृत चरित ग्रन्थ 'पुराण' चरित ग्रन्थों के समान
१. तु० - महापुराणसम्बन्धि महानायकगोचरम् ।
त्रिवर्गफलसन्दर्भ महाकाव्यं तदिष्यते ॥
- जिनसेनकृत प्रादिपुराण, १.६६, महापुराण, प्रथम भाग, सम्पा० पं० पन्ना लाल जैन, १९५१
२. तु० – इति धर्म कथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थ सन्दर्भे वराङ्गचरिताश्रिते० । - वराङ्गचरित सर्ग १ की पुष्पिका
३. तु० – इत्याचार्य श्रोहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये द्वितीयपर्वणि श्रीश्रजितस्वामिपूर्व भववर्णनो नाम प्रथमः सर्ग ॥ — त्रिषष्टि० २.१ की पुष्पिका
४. नेमिचन्द्र शास्त्री, संस्कृत काव्य०, पृ० २१, ३२ तथा ४०
५.
फादर कामिल बुल्के, रामकथा - उत्पत्ति तथा विकास, प्रयाग, १९७१, पृ० ६५-६६