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ज्ञानी पुरुष ( भाग - 1 )
प्रश्नकर्ता : हाँ, कुछ भी नहीं देखा था ।
दादाश्री : क्योंकि ननिहाल था धर्मज, तो गाड़ी में नहीं जाते थे। करमसद में ननिहाल था तो वहाँ पर भी गाड़ी में नहीं जाते थे। अगर नडियाद में होता तो जाते।
ऐसा देखा ही नहीं था न
प्रश्नकर्ता : तो जब गाँव वाले पहली बार शहर देखते होंगे तो आश्चर्य चकित ही रह जाते होंगे न ?
दादाश्री : वह तो ऐसा हुआ कि मैं मैट्रिक की परीक्षा देने बड़ौदा गया था। उस समय तब हमारे साथ एक ब्राह्मण था, अंबालाल मूलजी भाई करके।
प्रश्नकर्ता : उसका नाम भी अंबालाल मूलजी भाई ?
दादाश्री : हाँ। उसका नंबर हॉल में लगा था । तब फिर उसने मुझसे कहा कि 'आपका नंबर हॉल में है और मेरा उस जगह पर है'। तब मैंने कहा, ‘नहीं, हॉल में तेरा है। तू देखकर आ' । तो वह बेचारा समझ गया कि उसका नंबर हॉल में है । इसलिए फिर जब वह हॉल में गया न, तो हॉल में जाने पर उसे क्या लगा ? यह हॉल कितना ऊँचा है, वह देखा । फिर जल गुम्बज वगैरह देखे न, तो वहीं पर उसका दिल बैठ गया। ऐसा उसने देखा ही नहीं था बेचारे ने । इतना बड़ा गुम्बज ! वह उसकी कल्पना से बाहर था और उसकी एकाध नस खिंच गई, हं।
प्रश्नकर्ता : नस खिंच गई ?
दादाश्री : वह बेचारा घनचक्कर जैसा हो गया ! बाहर निकलने के बाद उसे घर भेजना पड़ा। और हाँ ! उसका दिमाग़ खिसक गया था।
प्रश्नकर्ता: खिसक गया !
दादाश्री : परीक्षा नहीं दे पाया था बेचारा । देखो न, न जाने कहाँ
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