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[3] उस ज़माने में किए मौज-मज़े
फिर दूसरा विचार आया कि 'क्या ऐसा ही होना है इस हिन्दुस्तान का? क्या इस विचार का कोई उपाय है अपने पास? कोई सत्ता है अपने पास? कोई सत्ता तो है नहीं, तो फिर यह विचार अपने काम का नहीं है। जिसकी सत्ता हो, वह विचार काम का। जो विचार सत्ता के बाहर हो फिर भी अगर उसके पीछे लगे रहें तो वह इगोइज़म
एकांत में बैठने पर अंदर से मिला जवाब फिर एक जगह एकांत में बैठकर सोचा, बहुत खटका, उसके बाद अंदर से जवाब मिला, फिर उससे मुझे पता चला। अंदर से मुझे धक्का लगा कि 'नहीं! ऐसा नहीं है'।
उन दिनों हमें ज्ञान नहीं था, ज्ञान तो 1958 में हुआ। 1958 में ज्ञान हुआ उससे पहले तो अज्ञान ही था न! क्या अज्ञान किसी ने ले लिया था? लेकिन तब अज्ञान में वह भाग दिखाई दिया कि 'जो चीज़ उल्टे का जल्दी से प्रचार कर सकती है, वह सीधे का भी उतनी ही तेज़ी से प्रचार करेगी। इसलिए सीधे के प्रचार के लिए ये साधन बहुत अच्छे हैं। जो साधन स्पीड से कलियुग लाते हैं, वही साधन स्पीड से कलियुग को निकाल देंगे।
जो बिगाड़ने वाले संयोग हैं वही सुधारेंगे साथ-साथ यह भी विचार आया था कि जो चीज़ इतनी स्पीड से देश को संस्कारहीन कर देती है, वही चीज़ उतनी ही स्पीड से संस्कारी भी बना देगी। जो बिगाड़ने वाले संयोग हैं, वही सुधारेंगे। यानी जितनी स्पीड से बिगाड़ते हैं उतनी ही स्पीड से सुधारेंगे और ऐसा ही होगा, देखना न!
ये साधन ही हमें संस्कार वाले बनाएँगे। उसमें साधनों का दोष नहीं हैं, वे तो मात्र निमित्त हैं। इसलिए साधनों की परेशानी नहीं है, साधन भले ही फैलें।
फिर सॉल्यूशन मिला कि ये जो खराब करने के साधन आए हैं