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ज्ञानी पुरुष (भाग-1)
पी रहे थे। फ्रेन्ड सर्कल था न, तो सब के साथ चाय पी। यों आम तौर पर ऐसी आदत नहीं थी कि बहुत लोगों के साथ मिलकर चाय पीएँ, लेकिन उस दिन तो खुश होकर चाय पी। वहाँ चाय पीने के बाद उन्होंने कहा, 'थोडा नाश्ता वगैरह भी करो'। तो मैंने कहा, 'नहीं, नाश्ता तो अभी नहीं हो सकेगा। मुझे तो यह परेशानी है कि गाड़ी रात को पहुँचाएगी'। क्योंकि वह गाड़ी तो चली गई थी इसलिए दूसरी गाड़ी में बैठना पड़ा।
दोपहर की चाय की ज़रूरत थी तो वह मिल गई, चाय के टाइम पर चाय मिल गई। मेरा क्या कहना है ? पुण्यशाली हैं न! हर कहीं पर चाय-नाश्ता मिल जाता है!
फिर वापस बैठ गए गाड़ी में, तो ठेठ अँधेरा होने तक शाम को छ:-सात बजे गाड़ी वहाँ पहुँची। क्योंकि पहली वाली गाड़ी से उतर चुके थे, फिर दूसरी गाड़ी में बैठना पड़ा इसलिए रात को गाड़ी से उतरना हुआ। मैं रात को अहमदाबाद पहुंचा।
पैसे नहीं, एड्रेस नहीं, मित्र के यहाँ पहुँचूँ कैसे?
रात को वहाँ अहमदाबाद स्टेशन पर उतरा। उन दिनों स्टेशन ऐसे थे कि आसपास खास बस्ती नहीं होती थी कोई। अब मकान ढूँढना था, एड्रेस था नहीं। कान में थोड़ा बहरापन था।
प्रश्नकर्ता : दादा, उन दिनों भी बहरे थे, बाईस साल की उम्र में?
दादाश्री : थोड़ा बहरापन तो था ही। प्रश्नकर्ता : शुरू से ही?
दादाश्री : ज़रा बहरे तो थे इसलिए मुझे हुआ कि अगर वह कहेगा कि 'इस तरफ है। अभी कहाँ से आ रहे हैं?' तो फिर ऐसा होगा न कि मैं समझ नहीं पाऊँगा? इसलिए फिर ऐसा हुआ कि घोड़ा गाड़ी में बैठ जाऊँ, उन दिनों घोड़ा गाड़ी चलती थी। उन दिनों रिक्शा वगैरह कुछ भी नहीं था, सिर्फ घोड़ा गाड़ियाँ ही। गाड़ियाँ नहीं, बहुत लोग भी नहीं थे।