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ज्ञानी पुरुष (भाग-1)
प्रश्नकर्ता : खाने जाते हैं, लेने नहीं।
दादाश्री : तो संग्रह करने की आदत ही नहीं थी न! वह झंझट ही नहीं थी न ! लोभ नामक गुण शुरू से ही नहीं था, बिल्कुल भी! बहुत ही उच्च प्राकृतिक गुण देखने को मिलते थे। ममता तो दिखाई ही नहीं देती थी। आप साथ में चाहे कितना भी दो लेकिन कह देते थे, 'नहीं भाई, मैं यह बाँधकर साथ में नहीं ले जाऊँगा, यहाँ पर खा लूँगा ज़रा सा'।
प्रश्नकर्ता : दादा, आपका इतना शुद्ध था इसलिए रिलेटिव में यह सारी परसत्ता छूट गई। रिलेटिव में जो इतनी स्पष्टता रहती थी आपको, तो वह इन्हीं गुणों के कारण?
दादाश्री : अंदर गुण तो हैं न, उन्हीं के आधार पर। प्रश्नकर्ता : लालच नहीं था इसलिए साफ-साफ दिखाई देता था।