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ज्ञानी पुरुष (भाग-1)
लेकिन अगर देखने के बाद कोई मक्खन नहीं मिलता था तो मैं छोड़ देता था। मैं बिलोता ज़रूर था लेकिन मेरा यह परिणामवादी था। यह देख लेता था कि परिणाम स्वरूप मुझे क्या प्राप्त हुआ। तो मैं भी बिलोता था, लेकिन बिलोने पर ही मुझे यह सब मिला। बिलोते-बिलोते मिला है न! लेकिन वह परिणामवादी था। बिलोने के परिणाम स्वरूप क्या आया? पूरी रात बिलोया और मिला क्या? तो कहते हैं कुछ भी नहीं। झाग दिखाई दे रहे थे, बस इतना ही। झाग तो बैठ जाता है। यानी कि जब मक्खन नहीं निकलता था तो मैं छोड़ देता था।
बचपन से ही मेरा एक स्वभाव था कि कोई भी कार्य करता था तो पहले मैं उसका परिणाम देखे बगैर नहीं रहता था। सब बच्चे चोरी करते थे तो मेरा मन ललचाता ज़रूर था कि, ऐसा भी करना चाहिए, लेकिन तुरंत ही मुझे परिणाम स्वरूप भय ही दिखाई देता था। शुरू से ही परिणाम दिखाई देते थे इसलिए कहीं भी चिपकने नहीं दिया। मुझे साथ में यह रहता ही था कि इसका परिणाम क्या आएगा, हर बात में।
लोगों के माने हुए सुख में नहीं देखा सुख प्रश्नकर्ता : भगवान के बारे में, गुरु के बारे में आपके विचार आश्चर्यजनक हैं और हम तो भेड़चाल की तरह जो पुराना चलता आया है, उसी में चलते जाते हैं, उसका क्या कारण है?
दादाश्री : आप लोग तो सीखकर करते हो, और मैं लोगों से नहीं सीखा। मैं शुरू से ही लोक संज्ञा के विरुद्ध चलने वाला इंसान हूँ। लोग जिस पर चलते हैं न, वह रास्ता इस तरह से गोल-गोल और उलझाने वाला है, वे लोग सड़क से होकर घूम-घूमकर जाते हैं। तब मैंने हिसाब निकाला कि गोल घूमने से तो तीन मील होंगे, इस तरह से सीधा एक मील है तो मैं सीधे ही जाऊँ इस तरफ से। उस रास्ते को ढूँढकर मैं सीधा चला जाता था। इस प्रकार मैं लोक विरुद्ध चला था। इनके कहे अनुसार कभी चलना चाहिए? नाम मात्र को भी लोकसंज्ञा नहीं। लोगों ने जिसमें सुख माना था, मुझे उसमें सुख दिखाई ही नहीं
दिया।