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[10.9] सही गुरु की पहचान थी शुरू से ही
इस तरह लोगों की सभी बातें उल्टी होती थीं, उनमें सीधी बात क्या है वह पहचानना तो पड़ेगा न ?
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बचपन से मुझे अलग मार्ग मिल गया था, शुरू से ही । बचपन से ही मार्ग बदलता था, मैं लोगों के आधार पर नहीं चलता था । जहाँ कोई टोली जा रही होती थी न, तो मैं उस टोली में नहीं चलता था । मैं देखकर जाँच करता था कि यह टोली किस तरफ ले जा रही है ? यह रास्ता भला इस तरह घूमकर और वापस उस तरह जा रहा है । अब उस पूरे रास्ते का हिसाब लगाया जाए तो एक के बजाय तीन गुना होता था, तो यह आधा सर्किल डेढ़ गुना होता है । तो डेढ़ गुना रास्ते पर जाकर मार खाए या सीधे ? तो मैं सीधा चलता था, लोगों के रास्ते पर नहीं चला, शुरू से ही । लोगों के रास्ते पर कोई काम नहीं । मेरा काम लोगों से कुछ अलग था, तरीका भी अलग था, रस्म भी अलग थी, सभी कुछ अलग। मेरी शुरू से ऐसी ही आदत थी। मुझे लोग क्या कहते थे, मैं बताऊँ ?
प्रश्नकर्ता : हाँ।
दादाश्री : कहते थे, 'सीधा जा रहा है ?' मैं कहता था, 'हाँ' । तब वे कहते थे, ‘तू हमसे पहले कैसे पहुँच गया ? सीधे चलकर आया ?' मैंने कहा, ‘हाँ, ‘सीधे चलकर आया हूँ तो क्या आपकी टोली की तरह मंजीरा बजाकर आपके साथ घूमूँ? मैं अपने तरीके से दूसरा रास्ता ढूँढ लूँगा। मुझे यह सब नहीं चलेगा।
खुद के माने हुए रास्ते पर चलकर अंत में ढूंढ निकाला
कुदरत का नियम क्या है ? पड़ोस में अगर कोई न हो और अकेला ही हो, तो उसे कुछ सुझाने वाला अंदर है लेकिन यदि दूसरे चार लोग हों तो कौन सुझाएगा ? अकेला हो तो सूझ पड़ेगी । अतः इस जगत् में इसी बात की झंझट है कि अकेला नहीं है ! जबकि मैं अकेला घूमा हूँ क्योंकि बचपन से ही मेरा स्वभाव ऐसा था कि आम रास्ते पर नहीं चलना है, खुद के बनाए हुए रास्ते पर चलना है। कितनी ही बार उससे मार भी बहुत पड़ी, काँटे भी खाए हैं लेकिन अंत में यह तय था कि इसी