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[10.3] ओब्लाइजिंग नेचर
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रुपए ज्यादा ले लेता था। 'अंबालाल भाई आए, अंबालाल भाई आए' कहते थे और मैं ज़्यादा दे भी देता था। मैं कहता था कि, 'इसकी दानत ही दो रुपए ज्यादा लेने की है, और ऊपर से यह व्यक्ति अगर पैसे लेकर खुश हो रहा है तो क्या हर्ज है? उसका मन भिखारी है, मेरा मन तो दो रुपए के लिए भिखारी नहीं बना न'। ऐसा स्वभाव था उनका तो, बदला नहीं। ऐसा स्वभाव हो गया था। मुझे वैसा सब करना नहीं आता था।
वेस्ट का किया बेस्ट उपयोग, लोगों के लिए
प्रश्नकर्ता : दादा, और किस प्रकार से आप लोगों को मदद करते थे?
दादाश्री : हमारे भादरण के मकान के सामने हमारा बाड़ा था। जैसे आपके यहाँ पर कम्पाउन्ड है न, वैसा हमारे यहाँ उससे लगभग आधा, उतना बड़ा कम्पाउन्ड था। उसका कोई उपयोग नहीं करता था इसलिए फिर मैं उसमें सब्जी-भाजी उगाता था, छोटा सा था फिर भी।
लोग उस जगह पर क्या करते थे? उस जगह का उपयोग नहीं होता था, इसलिए गाँव में तो लोग भैंस का गोबर और खाद वगैरह सब वहाँ पर डाल देते थे। तब फिर मैंने कहा कि, 'मुझे इस जगह का उपयोग करना है'। इसलिए उन लोगों ने वहाँ से सब उठा लिया और फिर मैं वहाँ लौकी वगैरह उगाने लगा। ऐसा सब मुझे अच्छा लगता था। बस, स्कूल में ही कुछ (करना) नहीं आता था।
एक बीज में से कितनी ही बेलें उग निकलती थीं! मेरा हाथ ऐसा था कि बहुत बड़ी-बड़ी लौकियाँ उगती थीं। तो इतनी बड़ी-बड़ी लौकियाँ उगने लगीं। हर एक पत्ते पर लौकी उगती थी और भुट्टे तो इतने बड़ेबड़े उगते थे। पहले खाद-पानी बहुत प्रचुर मात्रा में थे और सभी संयोग मिल जाने पर अच्छे उगते थे। उसके बाद मैं तोड़कर सभी लोगों को दे भी आता था। इस तरह से देता था कि उनके काम आए। लोगों को मुफ्त की चीज़ अच्छी लगती है न!