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ज्ञानी पुरुष (भाग-1)
लेकिन और सब तो रोते हैं, सचमुच में रोते हैं, वे अपने खास संबंधी को याद करके रोते हैं। फिर से याद कर-करके रोते हैं, यह भी एक आश्चर्य है न! भूतकाल को वर्तमानकाल में ले आते हैं न! हमें ऐसा प्रयोग करके दिखाते हैं!
अरे, हम यह सब नहीं जानते और जब समझने लगते हैं, तब हमें शब्दों से पता चलता है कि यह तो लौकिक है। लौकिक अर्थात् क्या? ऊपर-ऊपर का दिखावा। कैसा? सुपरफ्लुअस। यह तो समाज के अंदर से ही बिगड़ गया है। क्या हो गया है ? समाज का ढाँचा नहीं बचा है
और समाज में बिगाड़ आ गया है, दोनों ओर का कैसे चलेगा? या तो कोई ढाँचा होना चाहिए, वर्ना ऐसे बिगड़े समाज को फेंक देना चाहिए, ऐसा समाज नहीं चाहिए। जो मकान जीर्ण हो जाता है, उसे गिरा ही देना चाहिए।
यह दुनिया ही पूरी लौकिक है, हमें अलौकिक की ओर चलना है। यदि इसमें फँस गए तो मारे गए समझो। अनंत जन्मों से ऐसे चक्करों में हैं ! तो बचपन से ही मुझे यह सब उल्टा लगता था। मरने वाले के लिए नहीं लेकिन खुद के स्वार्थ के लिए रोते
अरे! कितनी ही बार तो, जिनका पति मर जाता है वह स्त्री क्यों रोती है? तो वह अपने मन में यह सोचकर रोती है कि 'इस मुए ने मुझसे शादी की और कुछ छोड़कर भी नहीं गया। अब मुझे अकेली को भटकना पड़ेगा'। वह अपने दुःख के लिए रोती है, वह जो मर गया है उसके लिए नहीं रोती। अपने-अपने दुःख से रोते हैं, मरने वाले के लिए नहीं रोते।
सभी जगह ये सारे रिश्ते स्वार्थ के हैं। इंसान के मरने के बाद स्वार्थ के लिए रोते हैं और अगर कोई कहे कि 'मैं प्रेम से रो रहा हूँ,' तो उसका प्रेम का स्वार्थ है। प्रेम तो उसे कहते हैं कि चाहे जीए या मरे, फिर भी प्रेम रहे। अर्थात् ये सब लोग स्वार्थ के लिए रोते हैं। वे