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[10.5] जाना, जगत् है पोलम्पोल पोल बाहर नहीं आती है इसलिए लौकिक चलता रहता है
अलौकिक की तो बात ही अलग है न! और लौकिक में तो आगे कपड़ा खींचकर और मुँह में पान दबाया होता है तो उसे चबाते रहते हैं। यदि पोल दिख जाए तो सब लोग समझ जाएँगे। लोगों को तो इस पोल का पता नहीं चलता है न। यह जगत् चलता ही रहेगा।
प्रश्नकर्ता : समझता तो हर कोई है कि, 'यह मैं नाटक कर रहा
दादाश्री : नहीं, सभी ऐसा नहीं समझते। प्रश्नकर्ता : क्या करने वाला नहीं समझता कि वह गुनाह कर रहा
दादाश्री : नहीं, यदि समझते तो अपने घर आकर भी ‘ऐसा' ही करते, लेकिन जब खुद के घर होता है तो छाती तोड़ डालते हैं, पगले। अतः समझते नहीं हैं। लौकिक अर्थात् लौकिक। लौकिक कब नहीं करते? जब खुद शरीर छोड़ते हैं तब लौकिक नहीं करते। जब खुद का शरीर छोड़ते हैं तब रोना नहीं, कुछ करना नहीं, कुछ भी नहीं। उस समय करते हैं? जब पराए का शरीर छूटता है तब करते हैं और खुद का शरीर हो तो कुछ नहीं। जब खुद का शरीर जाता है तब क्या कोई रोता है?
प्रश्नकर्ता : फिर तो उसे रोने को रहता ही नहीं।
दादाश्री : अरे! रोने वाला ही चला गया न, अब कौन रोने वाला रहा? पूरी दुनिया लौकिक है, इसलिए अलौकिक की ओर जाओ
प्रश्नकर्ता : लेकिन दादा, मैंने ऐसा देखा है जिनका नज़दीकी रिश्तेदार होता है, वे छाती पर चोट लगा लेते हैं और वहाँ पर उनका खून काला-काला हो जाता है।
दादाश्री : यह तो जब बिल्कुल ही खास संबंधी होते हैं तब,