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[10.5] जाना, जगत् है पोलम्पोल
दर्द होगा इससे तो!' तब पंडिताइन ने कहा, 'तुझे समझ में नहीं आएगा' । मैंने पूछा, 'क्या है ? छाती नहीं पीट रहे ?' तब उन्होंने कहा, 'जिनके घर वाले मर जाते हैं, सिर्फ वही पीटती हैं छाती । बाकी सब तो इस तरह हाथ लगाते हैं, ऐसे । उसे अंदर नहीं लगती, छाती में नहीं लगती लेकिन आवाज़ ज़ोर की आती है'। फिर मैंने कहा, 'आप सब को कैसे रोना आता है ? किसका वह बेटा, कौन मर गया और आपको रोना कैसे आता है?' तब कहते हैं कि, 'हर कोई अपने-अपने घर का याद करके रोते हैं'। उनके घर बेटा मर गया हो तो उसे याद करके रोते हैं, किसी का पति मर गया हो तो उन्हें याद करके रोती है, इनके लिए कोई नहीं रोता, तब मुझे स्पष्ट हुआ । मैंने कहा, 'ओहोहो ! तब तो ये लोग पक्के हैं ! मैं तो अभी कच्चा हूँ। यह सारा नाटक तो अलग ही तरह का है ' । इसलिए फिर मैंने इससे किनारा कर लिया । यह सब खोखला है, पोल है । मैं सच्चे दिल से रोता था । लेकिन सामने वाले को रोता हुआ देखते हैं तो स्वाभाविक रूप से हमें भी रोना आ जाता था । यह जगत् तो पूरा खोखला है! यह सब तो कला है ! फिर मैंने कहा, 'यह सच नहीं है ?' तब कहा, 'नहीं, इसे लौकिक कहते हैं, लौकिक'। मैंने जान लिया, तो अब आपकी यह व्यापारी दुकान कही जाएगी। किस तरह की कंपनी है यह ?
इन्डियन पज़ल, उसका हल फॉरेन वालों के पास नहीं है
छोटा भले ही था लेकिन जानने की जिज्ञासा बहुत थी, इसलिए उसके बाद ऐसी दगाबाज़ियाँ ढूँढने के लिए वहाँ जाकर देखकर आया था, तो वे ऐसा करते थे। तो मैंने ऐसा जाना कि ये तो खोखले मूसल की आवाज़ है । यह मूसल ठोस नहीं है, खोखला मूसल है। यह तो वही बात हुई कि क्या खोखला मूसल कूटने के काम आता है ? मैंने तो सभी जगह देख लिया। खोखली आवाज़ ही है न... ज़्यादा आवाज़ तो हाथ की ही थी और हाथ छाती पर धीमे से लगता था इसलिए फिर मैंने कह दिया, 'भाई ऐसा दिखावा चलता होगा क्या ?' फिर उन्होंने मुझसे कहा, 'क्या आप नहीं जानते थे कि ऐसा दिखावा होता है ?' बहुत ही पक्के लोग थे, नीचे तक साड़ी से घूँघट निकालकर इतनी अच्छी आवाज़ करते थे, इस तरह दिखावा करते ! लेकिन देखकर धीरे-धीरे यह सब सीख
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