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[10.5] जाना, जगत् है पोलम्पोल
देखा रोने-धोने का नाटक प्रश्नकर्ता : आप दुनिया को बहुत ही ऑब्जर्व (निरीक्षण) करते थे, तो क्या ऑब्जर्व करते थे?
दादाश्री : मैं जब छोटा था दस-बारह साल का, तब हमारे कुटुंब में एक भाई की मृत्यु हो गई तब वहाँ पर मेरे चाचा के बेटे वगैरह भी
ओढ़कर बैठे हुए थे और ये लोग तो चिल्ला-चिल्लाकर रो रहे थे। उनके सब भाई भी चिल्ला-चिल्लाकर रो रहे थे, तो वे किस तरह से चिल्ला रहे थे। सिर पर यहाँ तक ओढ़ा हुआ था। चूँघट डाला हुआ था। यहाँ तक खींचा हुआ ताकि चेहरा न दिखाई दे, आँखें न दिखाई दें। अंदर क्या कर रहे हैं, वे चिल्लाकर रो रहे हैं या रेडियो बजा रहे हैं, हमें पता ही न चले। अरे! इस तरह एक भाई चिल्लाकर रो रहे थे, 'ओ मेरे भाई रे' करके शोर मचा रहे थे, तो कौन जाने क्या इलेक्ट्रिसिटी, तो मेरी आँखों से पानी निकलने लगा। यों ही आगे कपड़े से ढके बिना। ऐसी आवाज़ निकाली। इस तरह बोला कि विषादरस उत्पन्न हो जाए। मेरी आँखों में पानी आ गया। तब फिर मुझे ऐसा लगा कि 'अभी मैं इतना रोया तो ये कितना रो रहे होंगे?'
फिर वे भाई जो चिल्लाकर रो रहे थे, उन्होंने चेहरा खोला तो कुछ भी नहीं था अंदर! मैंने कहा, 'ये कितना दगा दे रहे हैं!' दगा पकड़ा! मैंने एक बुजुर्ग चाचा से पूछा कि, 'आपको रोना नहीं आया?' तो उन्होंने कहा, 'अरे उसके लिए तो चिल्लाना पड़ता है ! लोगों को कैसे पता चलेगा कि हमारे यहाँ कोई मर गया है ? इसलिए चिल्लाकर रोना