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[10.5] जाना, जगत् है पोलम्पोल
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उसके जाने के बाद रोते हैं। वर्ना यदि सचमुच में रोना आ रहा हो न, तो पहले ही रोना आ जाता कि, 'अब मेरा क्या होगा?'
धोखा खाकर दुनिया की पोल पकड़ता गया मैंने पहले धोखा खाया, भोला-भाला इंसान था! धोखा खाया फिर मार खा-खाकर समझ गया था। इस तरह धोखा खाते-खाते जगत् की पोल (गड़बड़ियाँ) पकड़ता गया तो उसे 'पोल' कहा है, वर्ना पोल को 'पोल नहीं कहा है। यह सब नाटक ही है सिर्फ। क्या अंदर पोलम्पोल नहीं है?
इस दुनिया की सारी पोल देखकर आया हूँ मैं, क्योंकि मैं सच्चा पुरुष था। मुझे ऐसा लौकिक ठीक नहीं लगता था। ऐसा लौकिक ठीक लगता होगा? रोना मतलब रोना ही आना चाहिए लेकिन फिर मैंने देखा यह खोखला जगत् है। यह क्या कोई सच्चा व्यापार है? आपको कैसा लगता है? तो फिर यह नुकसान भी नहीं है। यह तो लौकिक है। हमें ऐसा लौकिक करना होता है। लौकिक अर्थात् लोग अपने साथ जैसा व्यवहार करें, वैसा ही हमें भी करना है। क्या आपको यह लौकिक अच्छा लगता है।
इसे लौकिक कहते हैं न? उसमें अगर कोई कमज़ोर पड़ जाए तो मारा ही जाएगा, लेकिन लौकिक में तो अगले दिन उसे सिखाने वाला कोई गुरु मिल ही जाता है कि 'क्या ऐसे करते हैं? देख! ऐसे करना चाहिए'। तो फिर वह व्यक्ति फिर से वह भूल नहीं करता। इस तरह छाती पर मारते ज़रूर हैं, हमें ऐसा दिखाई देता है लेकिन उसे लगती नहीं है! लौकिक अर्थात् व्यवहार। सब रो रहे हैं तो हमें भी रोना है, लेकिन रोए बगैर रोना है, वास्तव में नहीं रोना है। इस लौकिक में तो सब समझ में आता है, लेकिन इसमें समझ में नहीं आता। इसमें सचमुच रोता है!
प्रश्नकर्ता : दादा, दसवें साल से लेकर अस्सी साल तक आप कितनी बार रोए?
दादाश्री : रोते तो हैं, कुछ स्टेज पर वापस रोते भी हैं और फिर