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[10.4] जहाँ मार खाते थे वहाँ तुरंत छोड़ देते थे
रूठे थे बचपन में एक बार प्रश्नकर्ता : आपने कहा न कि अहंकार बहुत भारी था, तो अगर कभी आपकी मनमानी नहीं होती थी तो रूठ जाते थे क्या?
दादाश्री : शुरू से ही हममें आड़ाई कम थी। रूठने की आदत ही नहीं थी, बचपन से ही कम थी। मेरे घर के संस्कार ही ऐसे थे इसलिए सरलता थी लेकिन बचपन में एक-दो बार रूठकर देखा था, पाँच-सात साल की उम्र में।
तब हमारे रिश्तेदारों के बच्चे आए थे। तब बा ने कुछ दिया था, मुझे वह कम लगा। खाने की कोई अच्छी चीज़ होगी, तो मुझे कम मिली मेरे हिसाब से। तब फिर मैंने कहा, 'मुझे नहीं खाना है'। तब रूठ गया था। अगर कोई मुझे कोई चीज़ देने का कहता, और मुझे वह कम लगती तो मैं रूठ जाता था। वह जो चीज़ थी, वह तो वहीं पर रही, और वे बच्चे तो खाकर चले गए। मेरी चीज़ वहीं पर रह गई। फिर उसे भी कोई खा गया। रात को मैं ढूँढने गया तो मिली नहीं। मैंने कहा, 'वह कहाँ है?' तब कहा, 'वह तो खत्म हो गई भाई'। तब मैंने कहा, 'हाय! रूठने से तो हमें ही नुकसान हुआ'। दो रोटी खानी होती थी और नखरे इतने, थोड़ा सा खाना होता था और नखरे बहुत। ऐसा नुकसान का धंधा नहीं चलेगा, हमें नहीं पुसाएगा। इसलिए फिर जो भी देते थे, मैं वह ले लेता था।
प्रश्नकर्ता : उसके बाद से दादा, जो भी मिलता था वह ले लेते थे? जो भी देते थे वह ले लेते थे आप?