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ज्ञानी पुरुष (भाग - 1)
किसी को कैसे खुश करूँ, उसी में आनंद
जो कुछ भी काम हो, या कुछ भी लाना हो तो ले आता था। क्योंकि एक ही फेरे में जितने काम हो सकें, उतना किसी और का फेरा बचेगा न ! मेरे एक फेरे में उनके लिए भी फेरा लग जाता था। एक ही फेरे में चार फेरे के काम हो जाते थे । उसके लिए पूछते-पूछते जाएँ तो क्या हर्ज है? कोई कहता कि, 'मुझे तुझ पर विश्वास नहीं है'। तब कहते थे, 'भाई, आपके पैर छूते हैं'। लेकिन जिसे विश्वास था उसका तो ले जाते थे। यानी शुरू से ही ओब्लाइजिंग नेचर !
अंदर मुझे इसमें आनंद आता था । मुझे यह अच्छा लगता था कि कैसे किसी को खुश करूँ, ओब्लाइज करूँ। ओब्लाइजिंग नेचर बिगिन्स एट होम (परोपकार की शुरुआत घर से करनी चाहिए ।) सिर्फ बाहर ओब्लाइज करने का अर्थ ही नहीं है । हमें घर से ही शुरुआत करनी चाहिए। पड़ोस में किसी को ओब्लाइज नहीं करते और बाहर ओब्लाइज करते हैं। मेरा क्या जाता था इसमें ? वे सब खुश हो जाते थे कि, 'यह लड़का कितना समझदार है ! '
लेते
हुए भी नुकसान उठाया और डाले खुद के पैसे प्रश्नकर्ता : यानी कि दूसरों के आनंद में ही आपका आनंद था ?
दादाश्री : जब मैं तेरह से अठारह साल का था तब भादरण गाँव से बड़ौदा जाता था किताब वगैरह लेने, तब हमारे बड़े भाई यहीं पर रहते थे।
मैं छोटा था, फिर भी जब बड़ौदा आता था तब आसपास वाले कहते थे कि, 'हमारे लिए गंजी लेकर आना, हमारे लिए यह लाना, हमारे लिए दो चड्डियाँ लेकर आना' । कोई कहता था, 'हमारे लिए बंडी लेकर आना, हमारे लिए इतना ले आना' । कोई कहता, 'मेरे लिए टोपी ले आना, इस नंबर की ' । मित्रता थी इसलिए कहते थे न सभी ? तो मैं (उनकी ज़रूरत पूछता भी था ) ले भी जाता था, और फिर लाता भी था।