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[10.2] ममता नहीं
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प्रश्नकर्ता : ज्वार का ।
दादाश्री : तो ज्वार के पोंक को कूटकर, घी डालकर और उसका वह बनाते थे। पोंकियु या ऐसा कुछ कहते हैं न उसे ?
प्रश्नकर्ता : पोंकियो ।
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दादाश्री : तो इतना बंधवाते थे, तो सभी दोस्त लेकर आते थे वे सब लालची लोग थे ! मैं तो जितना वहाँ पर खाता था, बस उतना ही । लोग तो फिर घर पर भी ले जाते थे । उन खेतों में से इतनी - इतनी सब्ज़ी पैक करवाते थे कि 'लो, ले जाओ'। मुझसे कहते थे कि, 'हमारे खेत में काजू के बहुत पेड़ है, तो काजू लेने चलो'। तो सभी मित्र एकएक पाव की थैलियाँ बाँधकर लाते थे । मैं ज़रा सा भी नहीं लाता था । मैं वहाँ जितना खा लेता था, बस उतना ही । इस संसार की जूठन को मैं कहाँ छूऊँ? फिर भले वह काजू हो या सोना, इस तरह जूठन बाँध नहीं लाता था। हममें नाम मात्र को भी ममता नहीं थी ।
शुरू से ही अपरिग्रही, लालच या लोभ नहीं
मैं बचपन से ही लालची नहीं था । इतना सा भी लालच नहीं, कभी भी नहीं। आप दें, यहीं से साथ में दें तब भी हमारे काम का नहीं। मैं कौन! मैं ऐसा सब नहीं ले सकता ? पोंक खाने को बुलाते हैं तो पोंक खाकर चले जाना है लेकिन परिग्रह नहीं । अंदर से अच्छा ही नहीं लगता था। कोई भी चीज़ घर पर नहीं लाते थे । बिल्कुल भी लोभ नहीं था, जन्म से ही लोभ नहीं । भले ही अहंकार था। यानी कि हम कभी भी पोटली नहीं बाँधते थे। पुण्य इतना था कि आज तक पोटली नहीं बाँधी । ये सारे पहले के संस्कार थे। शुरू से ही ममता वाला स्वभाव नहीं था । आप अगर कोई चीज़ दो तो मैं यहीं पर दूसरों को देकर घर चला जाता हूँ । घर पर कभी भी नहीं ले जाता ।
बा ने भी एक बार मुझसे कहा था कि, 'भाई, ज़रा चखने लायक मोरी भी नहीं लाया ?' मैंने कहा, 'नहीं, वापस वह झंझट कहाँ करें ? हम वहाँ पर खाने जाते हैं, लेने नहीं जाते' । क्या कहा ?