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[8.3] व्यवहार लक्ष्मी का, भाभी के साथ
दादाश्री : मैं जानता हूँ कि उनका स्वभाव लोभी है। लोभ, लोभ, लोभ, निरंतर लोभ की जागृति । वे जब से मुझे मिली हैं, तब से एक सेकन्ड के लिए भी उनकी उस तरफ की जागृति बंद नहीं हुई । इनके साथ तो हमेशा परेशानी रहेगी। मैंने कहा, 'देते हैं फिर भी ये सुधरते नहीं, उनकी दृष्टि नहीं बदलती'। लोभी दृष्टि है न, इसलिए वह नहीं बदलती है। उनका लोभ कभी भी नहीं छूट पाया । इतना अधिक लोभ था! वे किस तरह से इस नोबल घर में आ गईं, वह भी आश्चर्य है ! यह एक ही गुण मेल खाता था कि चरित्र बहुत हाइ क्लास था। इस वजह से निभा लिया लेकिन लोभ घुस गया था न ! हीरा बा के कितने ही बर्तन वगैरह सब बेच दिए थे । उससे जो पैसे आए न, वे उन्होंने खुद ने रख लिए। लेकिन उसमें कोई हर्ज नहीं है, घी गिरा तो खिचड़ी में ही । लोग चोरी करके ले गए हैं क्या ? लोग ले गए हैं क्या ?
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