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ज्ञानी पुरुष (भाग - 1)
दादाश्री : हाँ-हाँ । ऐसा देखोगे तो आएगी ही न। ये सब मुझसे कहते हैं कि 'दादा, ऐसी शक्ति हम में कब आएगी ?' मैंने कहा कि जितने भी शक्तिशाली लोग हैं, अगर हम उनकी प्रशंसा करेंगे कि 'ओहो ! कितनी अच्छी शक्ति है !' तो वह प्राप्त हो जाएगी, बस । दुनिया का यही नियम है। शक्ति उसे पछाड़ने से प्राप्त नहीं होगी। ऐसा नहीं होगा कि उसे पछाड़ने से आप आगे आ पाओगे । उसकी प्रशंसा करोगे, उसे आगे बढ़ने दोगे तो आप भी आगे बढ़ोगे । स्पर्धा ऐसी होनी चाहिए कि उसकी प्रशंसा करके आप आगे बढ़ो। अगर उसकी निंदा करके, उसे डिप्रेशन में डालकर, उसे उल्टे रास्ते पर डाल दें तो उसे स्पर्धा नहीं कहेंगे। स्पर्धा यानी कि ‘हेल्प’।‘तू अपनी तरह से चल, तुझे जो भी हेल्प चाहिए, मैं वह दूँगा। अब तू भी स्पर्धा में आ जा' ।
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हमने तो बचपन से ही इस तरह से हेल्प करना तय किया था लेकिन इन सब बुजुर्गों को मैंने देखा है। ज़रा सा भी कोई आगे बढ़ने लगे कि मार- ठोककर, धक्का मारकर उसे पछाड़ देते हैं और अगर कोई पीछे रह जाए तो उसे आगे ले आते हैं, और उसे कहते हैं कि, 'मेरे पीछे रहना' । यह सब गलत ही है न! डेवेलपमेन्ट की कितनी कमी है यह! मुझे बहुत चिढ़ मचती है कि ये कैसे लोग हैं ? अगर मुझे सींग मारोगे तो मुझे ऐसा लगेगा कि यह समझदार है, लेकिन आप मुझसे आगे बढ़ो।
बिना तौले-बिना नापे वापस कर देता हूँ
प्रश्नकर्ता : आपने कहा न कि कुटुंब में अंदर ही अंदर कुछ देर में झगड़े हो जाते हैं तो उस समय ज्ञान से पहले आप क्या करते थे ?
दादाश्री : एक कुएँ में हमारे बुजुर्गों का हिस्सा था तो वे आमनेसामने गालियाँ देते थे, वे मैंने कुछ सुन लीं । फिर वे लोग कोर्ट में गए तो सब ऐसा ही था, झगड़े ही झगड़े और फिर एक भी हो जाते थे। एक ही मुहल्ले के थे न, तो वापस एक हो जाते लेकिन लड़ते भी थे । जब लड़ते थे तो बड़ा - बड़ा, छोटा नहीं । नोबिलिटी से! कमी नहीं रखते थे ।