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[9] कुटुंब - चचेरे भाई-भतीजे
मिल रहा है। घर बैठे अपने यहाँ दादा कहाँ से आएँगे ? घर बैठे, किसी को बुलाने भी नहीं जाना पड़ता । यह पुण्य है न, एक तरह का । पुण्य हैन ?
प्रश्नकर्ता : हाँ, है
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दादाश्री : हक़, हक़ है अपना ।
इस जन्म में तो रास आ गया। नहीं ? आपको लगता है ऐसा ? अनंत जन्मों का सार आ गया।
सामने कोई प्रतिस्पंदन नहीं होने से सुधर गया भतीजा
यानी जिन्होंने हमारा विरोध किया न, भतीजे वगैरह, वे सब अब सुधर गए हैं क्योंकि उसके सामने हमारे प्रतिस्पंदन नहीं पहुँचे न!
प्रश्नकर्ता: दादा, यह ज़रा ज़्यादा समझाइए न !
दादाश्री : हम उसे शुद्ध ही देखते हैं । उसका दोष ही नहीं है, ऐसा देखते हैं। दोष हमारा ही है, ऐसा दिखाई देता है । हमारी ऐसी दृष्टि रहती है इसलिए उस तक ऐसे प्रतिस्पंदन पहुँचते हैं । अतः उसे सुधरे बिना कोई चारा ही नहीं है । जब ज्ञान नहीं था तब हम से मिले, उसमें आधे सुधर गए और कोई बिगड़ भी गया । लोग कहते थे न कि, 'आप लोगों को लुटेरे बना रहे हैं'।
प्रश्नकर्ता : ज्ञान से पहले ?
दादाश्री : हाँ, ज्ञान से पहले। क्योंकि तब अंदर एक गुण था। सहन कर लेना और दया का गुण था अंदर । कोई भी अगर दुःख दे, कोई त्रास दे तो अंदर ही अंदर सहन कर लेते थे। रिश्तेदार हो या मित्र हो। बस, इतना गुण था। यानी कि कोई पाँच-दस हज़ार रुपए ले गया तो उसके प्रति द्वेष नहीं होता था । तब फिर लोग मुझसे क्या कहते थे कि आपने उसे सीधा नहीं किया, उसे कोई दंड नहीं दिया तो अब वह लुटेरा बन बैठा है । दंड दिया होता तो ऐसा करने से रुक जाता । तब मैंने उन्हें समझाया कि 'आपसे भूल हो रही है। मैं दंड नहीं दे