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ज्ञानी पुरुष (भाग-1)
दादाश्री : हाँ, पंद्रह-बीस साल से करती हैं सबकुछ, इस तरह बैठकर। इनके जैसा कोई कहे कि 'भगवान हैं' तो फिर पैर छूती हैं। वे तो पहले से ही पैर छूती थीं सभी के, हर रोज़। जब कभी भी मिलते तो नीचे बैठकर पैर छूती थीं, साड़ी फैलाकर। जब हमारा थोड़ा-बहुत ऋणानुबंध कम हुआ न, तब ! लेकिन अभी भी है। इन्होंने कहा तो आरती उतारती हैं। वहाँ भादरण में घर पर जाता हूँ तब भी आरती उतारती हैं।
प्रश्नकर्ता : ठीक है।
दादाश्री : जब ये नीरू बहन समझाती हैं तब फिर आरती करती हैं। हम वहाँ गए थे न, तब उन्होंने कहा कि 'मुझे दादा की आरती उतारनी है'। तो सब के सामने उन्होंने आरती उतारी थी। उदयकर्म की कितनी उलझनें रहती हैं! कर्म की उलझनें हुई नरम, फिर भी दादा रहे सावधान
प्रश्नकर्ता : लेकिन उतना तो नरम हुआ न? तो अब क्या बचा?
दादाश्री : लेकिन हम सावधान रहते हैं। फाइल है न! फाइल, फाइल! मेरे कहने से पहले ही वे पूरी बात समझ जाती हैं।
प्रश्नकर्ता : यानी की बहुत ही विचक्षण!
दादाश्री : बहुत विचक्षण, ज़बरदस्त ! इसलिए मुझे सिर्फ आधी बात ही कहनी पड़ती है। यह सारा हिसाब है फाइलों का, तो मैं जैसेतैसे करके इसमें से बाहर निकला। मेरा हिसाब खत्म हो जाए तो बहुत अच्छा। इनके जैसे तो खत्म करवा देते हैं, बक-बक करके।
प्रश्नकर्ता : दादा, इसमें खत्म करने जैसा है ही क्या? दादाश्री : नहीं, कुछ भी नहीं है।
प्रश्नकर्ता : आपको जब फ्रेक्चर हुआ था, तब एक बार आपकी तबीयत पूछने आई थीं। मुझे याद है।
दादाश्री : हाँ।