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[8.1] भाभी के साथ कर्मों का हिसाब
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अब उसके घर जाने के लिए घोड़ा गाड़ी में कुछ पैसे खर्च करने पड़ते और उस समय तो पैसे नहीं थे, तो घोड़ा गाड़ी में कैसे जाता? पैसे नहीं थे, अब क्या करता? किराए के पैसे नहीं थे।
__ इतने में तो अँधेरा हो गया। मैं सोच में पड़ गया कि 'दो आने भी नहीं हैं घोड़ा गाड़ी में जाने के लिए,' वर्ना घोड़ा गाड़ी वाले से कहता कि, 'भाई, मुझे ढाल की पोल पर उतार', तो वह बेचारा वहाँ उतार देता।
मुझे इतना ही याद था कि ढाल की पोल (मुहल्ला) में है लेकिन मुझे यह नहीं मालूम था कि वहाँ किस तरह जाना है। सिर्फ पोल का नाम ही याद था, और कुछ भी पता नहीं था मुझे। पोल में पहुँचने के बाद, मैं तुरंत ढूँढ निकालता लेकिन पैसे होते तो घोड़ा गाड़ी में बैठ पाता न?
अब एड्रेस नहीं था, जेब में पैसे नहीं थे, अब सोऊँ कहाँ ? रहूँ कहाँ? इसलिए मकान ढूँढे बिना कोई चारा ही नहीं था, घर का पता नहीं था फिर भी। उस दिन पता चला कि 'अगर यह पता नोट कर लिया होता तो अच्छा था लेकिन पता ही नोट नहीं किया था न! जिंदगी में पता नोट करने की आदत ही नहीं थी, प्रकृति ही नहीं थी ऐसी।
मुझे कभी भी ज़रूरत ही नहीं पड़ी थी किसी के यहाँ जाने की। और अगर ज़रूरत होती तो पैसे लेकर निकलता तो घोड़ा गाड़ी, गाड़ी वगैरह सब साधन थे। फिर मुझे क्या परेशानी? यानी कि पता नहीं लिखता था, और उसी दिन ऐसा हो गया, बिना पते के कैसे पहुँचता? घोड़ा गाडी भी कैसे करता? पैसे नहीं थे न! इसलिए फिर मैं पैदल चलने लगा। कोई भी साथ में नहीं था, कोई भी नहीं।
बिना पते के होशियारी से ढूंढ निकाला घर
फिर सोचते-सोचते हुआ ऐसा कि दरवाजों (अहमदाबाद शहर के परकोटे के दरवाज़े) के भी नाम नहीं जानता था। क्योंकि ऐसी कुछ पड़ी ही नहीं थी इस दरवाज़े पर यह है या फलाना है। ऐसे, जैसे कि कल यह काम ही नहीं आएगा और जैसे निर्भय स्थान पर नहीं घूम रहे