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[3] उस ज़माने में किए मौज-मज़े
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और साँप की, है क्या बुद्धि किसी के बाप की?' ऐसा सब बोलकर विदूषक हँसाते थे, तब जाकर ये नाटक वाले पैसे कमाते थे। यों कोई अमीर घर के नहीं थे कि यहाँ नाटक में पैसे दे? घर पर दूध में कमी करते थे।
फिर एक दिन मूसलाधार बरसात हुई। तब सब को कहलवा दिया कि 'आज मुफ्त है। चलो, चलो, जल्दी आ जाओ' । बरसात हुई तो कोई आ नहीं रहा था। तब मैंने कहा, 'बुला लाओ, आज आवाज़ दो'। तो ढिंढोरा पीटने वाले से कहा, तो फिर वह आवाज़ देकर आया। उसने कहा, 'आज मुफ्त है, जिसे नाटक देखने आना हो वह आए!' ऐसी है यह पूरी दुनिया!
एक बार तो पाँच-पच्चीस प्रेक्षक ही आए थे, तब भारी पड़ गया था। लेकिन वे कोई और होंगे जो दिवाला निकालें! पहले लगा था कि सिनेमा से हिन्दुस्तान बिगड़ जाएगा
फिर वह नाटक वाला गाता है, 'देखा ज़माना यह कलियुग का, पाप का विस्तार है। मैं खापरो, तू कोडियो, जोड़ी बिच्छू और साँप की, है क्या बुद्धि किसी के बाप की?' मैं साँप जैसा हूँ और तू बिच्छू जैसा है, यानी क्या बुद्धि किसी के बाप की है? ऐसा है यह ज़माना! नाटक में ऐसा बोलते थे। हम पच्चीस साल के हुए उससे पहले तो सभी नाटक खत्म होने लगे। पूरा ज़माना बदल गया, क्योंकि सिनेमा जागृत हो गए थे न! उस अरसे में सिनेमा आ गए थे। नाटक का पतन हुआ और इसका उत्थान। तांबे और पीतल का पतन हुआ, कांसा और स्टेनलेस स्टील का उत्थान हुआ। अब जब स्टेनलेस स्टील का पतन होगा तब नई चीजें आएँगी। यह दुनिया इसी तरह चलती रहती है।।
फिर मैंने सोचा, 'ये लोग तो दुनिया को बिगाड़ देंगे। सिनेमा वाले तो दुनिया को खत्म कर देंगे'। मुझे बल्कि ऐसा लगा, ये कैसे मूर्ख लोग हैं, ऐसा क्या ढूँढ निकाला? मुझे फूलिश (मूर्खता भरा) लगा। कैसे फूलिश हो गए हैं ! आगे बढ़ने की बजाय इस ओर चले!