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[3] उस ज़माने में किए मौज-मज़े
अच्छा हुआ और गांधी जी ने भी सील लगा दी । उसमें हरिजनों के साथ होने वाला वह तिरस्कार खत्म हो गया । वर्ना जब वे लोग ब्राह्मणों के यहाँ खाना खाने बैठते न तब, 'देख भाई छूना मत, हं'। ऊपर से, इतने ऊँचे से परोसते थे ।
प्रश्नकर्ता : दादा ! स्कूलों में भी ऐसा था । पानी पीना हो तो ब्राह्मण के प्याले, पटेल के प्याले, पानी की प्याऊ होती थी न, वहाँ प्यालों पर पेपर चिपका रहता था कि ब्राह्मण के प्याले, बनिए के प्यालों, पटेल के प्याले ।
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दादाश्री : हाँ, वहाँ पर ऐसा था । मुझे तो शर्म आती थी कि 'भाई, ऐसा खाना!' मैं मना कर देता था कि 'मुझे नहीं खाना है, भाई'। वे ऊपर से परोसते थे। शर्म नहीं आती तुम्हें ? तिरस्कार, तिरस्कार, तिरस्कार । इसीलिए दु:खी है अपना हिन्दुस्तान । तिरस्कार से दुःखी है। इन हरिजनों का और सभी निम्न वर्ण हैं न, सभी का भयंकर तिरस्कार किया है । एक ओर स्त्रियों को गंगा का रूप कहते हैं, और फिर विधवा मिल जाए तब ऐसा कहते हैं कि 'मुझे अपशकुन हो गया' । तो भाई ! गंगा का रूप क्यों लिखता है? लिखने में तो बहुत वीर हैं । कोई तो समझेगा कि गंगा जी यहाँ पर आई हैं!
प्रश्नकर्ता : शादी में भी नहीं जाते। ऐसे तो कई सारे बुरे रिवाज़
थे ।
दादाश्री : हाँ, सारे रिवाज़, कचरा सारा ।
बचपन में गांधी जी को सुनने गए थे
प्रश्नकर्ता: आप जब छोटे थे तब गांधी जी का बहुत प्रभाव था, तो आपका उनके साथ का कोई अनुभव है क्या ?
दादाश्री : 1921 में मैं जब तेरह - चौदह साल का था तब गांधी जी ने सभा में भाषण दिया था । तब सुनने गया था । वहाँ गांधी जी के दोनों तरफ सिंह जैसे दो लोग, ऐसे बैठाकर रखते थे, उन मियाँ भाईयों
को....