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[5.2] पूर्व जन्म के संस्कार हुए जागृत, माता के
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इसीलिए तो मैं दोस्तों के वहाँ थोड़ा-थोड़ा ही खाता था, इतना-इतना सा
और घर आकर थोड़ा खा लेता था। बचपन से ही ऐसा प्रयोग किया था। दोपहर को एक ही बार खाता था, उसके बजाय तीन-तीन बार खाना हो जाता था मेरा। एक जगह पर साढ़े ग्यारह, दूसरी जगह पर बारह और तीसरी जगह पर साढ़े बारह बजे खाता था।
तीनों के ही मन के समाधान के लिए प्रश्नकर्ता : लेकिन उस समय इस तरह तीन जगहों पर क्यों खाना खाते थे?
दादाश्री : कोई बहुत ही पीछे पड़ जाए तो उसके मन के समाधान के लिए। फिर कोई दूसरा कहे तो उसके मन का समाधान करने के लिए और बा के साथ।
प्रश्नकर्ता : तीनों के ही मन का समाधान करने के लिए।
दादाश्री : हाँ। पहले वाले के वहाँ एक रोटी खाता, फिर दूसरे वाले के वहाँ एक रोटी खाता, और अंत में दो रोटी खा लेता था लेकिन सभी को खुश रखता था। दोस्त को भी खुश रखता था, वहाँ दूसरे को भी खुश रखता था और बा को भी खुश रखता था। मेरी तरह ऐसा तो कोई भी नहीं करता होगा।
प्रश्नकर्ता : लेकिन अगर बा को खुश नहीं रखते तो चल जाता।
दादाश्री : लेकिन क्या बा को चल जाता? और उस फ्रेन्ड को भी खुश रखना पड़ता था। क्योंकि उसके यहाँ पर कभी गेस्ट आए हुए हों और मेरे जैसे को न बैठाए तो उसके मन में दुःख होता।
प्रश्नकर्ता : अतः ज्ञान के बाद से ऐसा सब था या सब पहले से?
दादाश्री : ज्ञान से पहले। ज्ञान के बाद तो ऐसा रहेगा ही नहीं न! पहले तो किसी के वहाँ खाना खाने नहीं जाते थे। उसके बाद तो कहीं खाना खाने बैठे ही नहीं न! (1968 में मुंबई में मासी बा के वहाँ पर