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[8.1] भाभी के साथ कर्मों का हिसाब
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प्रश्नकर्ता : नसीब का लिखा हुआ करते हैं।
दादाश्री : लेकिन दो चीजें थी। एक तो नसीब में लिखा हुआ और फिर कलह । जब खाना खाने बैठते थे तब भाभी रोज़ खाने के समय पर ही भाई से शिकायतें करती थीं। इस तरह भाई का खाना बिगाड़ती थीं और मुझे हेडेक हो जाता था। मुझे हेडेक हो जाता था, क्योंकि मैं बड़े भाई के प्रेशर में रहता था, मैं एक अक्षर भी नहीं बोल सकता था। बेचारे भाई का खाना बिगड़ता था, अच्छे इंसान का। भाभी को इस तरह कलह करने की आदत थी!
भाभी के वश में रहने के बजाय भाग छूटो यहाँ से
उसके बाद एक दिन जब भाई नहीं थे, उस समय भाभी से बहुत ही बोला-चाली हो गई। उससे मुझे मन में बहुत बुरा लगा। तब मुझे ऐसा लगा कि, 'मैं तो ऐसा हूँ कि भगवान को भी गालियाँ हूँ। मेरा गुनाह हो तो बता दो, लेकिन यह सब किसलिए? किसलिए परवश रहना है हमें?' मुझे मन में ऐसा हुआ कि 'अरे! इन भाभी से दबकर रहने के बजाय तो हम स्वतंत्र रहकर खाएँ तो अच्छा, फिर चाहे कुछ भी करें।
इसलिए फिर मैंने उस दिन तय किया कि, आज तो चलो, अब यहाँ से चले जाना है। अब यहाँ पर नहीं रहना है हमें। हमेशा के लिए अब अलग बिज़नेस कर लेना है। इन भाभी के साथ नहीं रह सकते। भाग चलो यहाँ से। अब ज़रा ज़्यादा ही हो गया है।
एक भी पैसा साथ में नहीं रखा ऐसी मारैलिटी
फिर भाई के साथ खाना खाने बैठा। भाई खाना खा रहे थे और मैंने जल्दी खाना खत्म कर लिया। जल्दी खाना खाकर ग्यारह बजे मेरा कोट पहना, उन दिनों मेरी उम्र तेईस साल की थी, लेकिन लंबा कोट पहनता था। मूल रूप से कॉन्ट्रैक्ट का काम था इसलिए सेठपन तो था न, तो बाहर सेठपन तो माना जाएगा न! इसलिए लंबा कोट पहनता था।