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ज्ञानी पुरुष (भाग-1)
दिनों ऐसी क्यू (कतारें) नहीं होती थी, जब जाते तब खिड़की खुली ही मिलती थी और कोई लेने वाला भी नहीं होता था। क्यू वगैरह तो बाद में लगने लगीं। तब मेरी उम्र इक्कीस-बाईस साल थी, तो कितने साल पहले की बात है यह? बावन साल पहले की बात है न...
प्रश्नकर्ता : हाँ, 1930 की।
दादाश्री : बोलो, अब बावन साल पहले हिन्दुस्तान कितना सुंदर रहा होगा!
मैं टिकट लेने गया बड़ौदा से अहमदाबाद की लेकिन हुआ कुछ विचित्र। अब स्थिति बदल गई। टिकट मास्टर जी ने कहा कि 'भाई, एक रुपए नहीं चलेगा, एक आना और चाहिए। चार्ज बढ़ गया है, सरकार ने किराया बढ़ा दिया है। पंद्रह आने था उसके बजाय अब एक रुपया, एक आना कर दिया है'। अरे! यह क्या फज़ीता? मैंने समझा कि एक आना बचेगा, तो रास्ते में उससे चाय-पानी वगैरह पीएँगे तो बहुत हो जाएगा अपने लिए।
अब एक आना कहाँ से लाते? मैंने कहा, 'रुको, मैं छुट्टे करवाकर लाता हूँ। अब अगर दूसरा एक आना और होता तब देता न? फिर दूसरा विचार आया कि अगर एक आना लाए तो टिकट तो मिल जाएगी लेकिन फिर भाई साहब को चिट्ठी कैसे लिखेंगे?' उन दिनों दो पैसे का आता था पोस्टकार्ड। मैंने कहा, 'कहाँ से लाऊँ अब?'
अक्ल चलाकर निकाला रास्ता अब ऐसी स्थिति आ गई थी। अब एक आना कहाँ से लाते? अब किससे माँगते? और कोई परिचित दिखाई नहीं दिया। वे भाई तो चले गए थे, जो ज़्यादा पैसे दे रहे थे वे। अब क्या हो सकता था? अब अहमदाबाद जाना है और यहाँ पर तो रात को रुक नहीं सकते थे, तो, 'आज की गाड़ी में ही जाना है'। फिर दूसरी एक गाड़ी थी लेकिन वहाँ पहुँचने में रात हो जाती। अहमदाबाद पहुँचने में रात हो जाती तो फिर दोस्त के वहाँ कैसे जाता? पहुँचता कैसे? फिर एक बात सूझी।