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[8.1] भाभी के साथ कर्मों का हिसाब
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जिससे इस दुनिया से आपका मन उठ गया और अध्यात्म की तरफ का वेग खूब बढ़ गया।
दादाश्री : हाँ, ऐसी घटना हुई थी न! उस घटना में हमारी भाभी निमित्त बनी थीं। उसमें भी फिर एक बार भाई के साम्राज्य में भी हमें वहाँ से भाग जाना पड़ा था। हाँ, भाग गया था घर छोड़कर। कहे बिना अकेला अहमदाबाद चला गया था।
रूठा नहीं था लेकिन तय किया था कि अब यहाँ नहीं रहना है। उसे रूठना नहीं कहेंगे लेकिन उन सब को ऐसा लगा कि यह रूठकर चला गया। मैंने तय ही कर लिया था कि, 'अब हमें यहाँ पर रहना ही नहीं है। इनके साथ मेल नहीं बैठेगा, इस स्त्री के साथ'।
घुमा-फिराकर दुःख देती थीं हमें प्रश्नकर्ता : क्या हुआ था, दादा?
दादाश्री : हमारी भाभी के साथ हमारा मतभेद चलता ही रहता था। बड़े भाई तो राजसी इंसान थे। उनका कॉन्ट्रैक्ट का अच्छा बिज़नेस था लेकिन भाभी से मेरा मतभेद चलता रहता था। मेरा दिमाग़ ज़रा गरम था तो भाभी के साथ टकराव होता रहता था।
प्रश्नकर्ता : लेकिन वे ऐसा क्या करती थीं?
दादाश्री : कुछ बातों में बहुत अड़चन डालती थीं। वे मेरी ज़रूरत की चीजें नहीं देती थीं। मुझे जिस तरह से पाला-पोसा था मेरी मदर ने, उस तरह से नहीं रखती थीं। दूसरे टेढ़े तरीके अपनाती थीं इसलिए मेरा दिमाग़ खिसक जाता था। उन दिनों तो पूरा ही मनुष्य स्वभाव था न, तो अच्छा-अच्छा खाने-पीने को चाहिए था, और उसमें वे रुकावट डालती थीं। वेढमी में ज़्यादा घी लेता था और भाभी देती थीं कम
मुझे बा ने अलग ही तरीके से पाला-पोसा था और ये कुछ अलग ही तरह से रखती थीं। क्योंकि बा ने अच्छी तरह से खिलाया