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[7] बड़े भाई
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ऐसा कहते थे। वे रक्षण करने के लिए ऐसा कहते थे कि 'किसी से पूछना कि आप क्यों नहीं लाते?'
'उस दुकान के लिए कोई पाँच हज़ार भी उधार नहीं देगा। मुझ पर पच्चीस हज़ार का उधार है तो मेरे कंधों पर भार है', जा ऐसा कहकर आ जा। खुलेआम ऐसा कहते थे।
लेकिन फिर उन्होंने चुका दिए। मरते समय मुझसे ऐसा कहा था कि 'किसी भी व्यक्ति के पैसे बाकी नहीं रहने चाहिए'। कोई शराबी क्या कभी ऐसी मर्यादा रखता है ? और उन्होंने सब चुका दिया। मेरे हिस्से में तो चुकाने का थोड़ा-बहुत ही रहा। फिर जायदाद बेचकर दे दिया, कुछ भी करके, लेकिन चुका दिया।
मारकर आना, बेचारा बनकर मत आना वे मणि भाई शूरवीरता वाले क्षत्रिय, पक्का क्षत्रिय कहना पड़ेगा! सौ लोग हों फिर भी कोई उनका नाम नहीं ले सकता था, वह मैंने देखा है और मेरी कोई सुनता तक नहीं था, वह भी मैंने देखा।
प्रश्नकर्ता : तो क्या आपको अंदर से ऐसी इच्छा थी कि 'मेरी कोई सुने?'
दादाश्री : नहीं, ऐसा नहीं था। ऐसी इच्छा ही नहीं थी। प्रश्नकर्ता : फिर सुनने का सवाल ही नहीं है न!
दादाश्री : मुझे (लोगों में) प्रिय बनने की आदत थी। मैं उनसे क्या कहता था कि 'लोग मुझसे कहते हैं कि भाई पर पच्चीस हज़ार का उधार है, फिर भी इतनी घेमराजी (अत्यंत घमंडी, जो खुद अपने सामने औरों को बिल्कुल तुच्छ माने) कैसे?'
तब उन्होंने मुझसे कहा, 'तुझे कहता है, मेरे मुँह पर क्यों नहीं कहता? तू बेचारा बनकर घूमता है। यह बेचारा अच्छा है, यह बेचारा अच्छा है'। तो किसी का बेचारा बनकर मत आना यहाँ पर। मारकर आना, लेकिन बेचारा बनकर मत आना'।