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ज्ञानी पुरुष (भाग-1)
तब कहते थे कि, 'मैं किसी भी जगह पर सिर खुला रखकर बाहर खाना खाने नहीं बैठता हूँ'। वे तो साफ-साफ कह देते थे।
प्रश्नकर्ता : लाइन में नहीं बैलूंगा, वह भी ऑर्डिनरी लगता है।
दादाश्री : हं, खाना वगैरह नहीं खाते थे। लोग कहते थे, 'मैं घर पर भिजवा दूँ?' तब कहते, 'हमारे घर पर भी नहीं'। फिर मैं उन्हें समझाता था कि 'घर में बैठाओगे तो आएँगे, पंगत में नहीं बैठेंगे'।
तो वे सब आसपास वाले सेठ क्या करते थे कि 'भाई, आप दोनों भाईयों को घर में बैठना है'। तब वे कहते थे, 'अच्छा, तो जाऊँगा। मैं घर में बैलूंगा'। तो लोग घर में बैठाते थे। पूरी जाति के लोग हों, मुहल्ले में चाहे कहीं भी खाना खाने जाना हो, लेकिन मणि भाई खाना नहीं खाते थे। बाकी, मैं तो बाहर बैठ जाता था। मैं तो बाहर बैठ जाता था, मुझे कोई हर्ज नहीं था। हम ऐसे इज़्ज़त वाले नहीं थे न!
हमारा ऐसा रौब-वौब नहीं था, हम तो सामान्य इंसान कहे जाते थे। वे असामान्य थे, तो वे ऐसा कहते थे 'खुले सिर पब्लिक के बीच में खाना खाने नहीं बैलूंगा?' अब हम उसमें क्या कर सकते थे? फिर लोग बेचारे क्या करते थे? अब लोग ऐसे आड़े आदमी के साथ निकाल (निपटारा) तो करते न, नहीं करते?
प्रश्नकर्ता : निकाल तो करना ही पड़ता है न!
दादाश्री : उनके मुँह पर ऐसा कौन कहे कि 'आड़े हो?' 'भाई, आपके लिए तो हमने घर में खाना खाने की व्यवस्था रखी है तो मणि भाई साहब! आपको खाना खाने घर में बैठाएँगे', ऐसा कहते थे। घर में पीढ़ा रखकर उस पर बैठाकर खाना खिलाते थे। मुहल्ले में कोई भी उन्हें खाना खाने बाहर नहीं बैठाता था। मुहल्ले में कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं कहने आया कि 'जहाँ सब लोग बैठे हैं, आप भी वहाँ खाना खाने बैठिए'। उन्हें घर में बैठाते थे हमेशा। उन्हें और मुझे दोनों को घर में बैठाते थे और बाकी सब को बाहर बैठाते थे। पूरी जाति के लोग बाहर बैठते थे। दिमाग़ ऐसा था कि उन्हें घर में बैठाना पड़ता था। वे कभी भी