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[5.2] पूर्व जन्म के संस्कार हुए जागृत, माता के
था, 'ज़रा ऐसा है न', तो वे समझ जाती थीं फिर । फिर कह देता था कि 'मुझे बाहर खाना पड़ा है और आपके साथ तो खाना ही पड़ेगा'। फिर और क्या हो सकता था ? देखो, जितना हो सके उतना खुश रखकर सारा काम करना है। बाकी सब व्यवस्थित के ताबे में हैं । ठोकर मारकर चले जाएँ तो वह नहीं चलेगा । तुझे कैसा लगता है ?
प्रश्नकर्ता : ठीक है दादा |
तटस्थता से निरिक्षण किया बा के स्वभाव का
प्रश्नकर्ता : झवेर बा का देहांत कब हुआ था ?
दादाश्री : 1956 में । मैं अड़तालीस साल का हुआ तब तक वे
थे ।
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प्रश्नकर्ता : यानी कि बा के जाने के बाद ज्ञान हुआ ?
दादाश्री : हाँ। बा के जाने के दो साल बाद ज्ञान हुआ । बा तो कहना पड़ेगा... मूर्ति थीं !
तब मेरी मदर की उम्र चौरासी साल थी। रोज़ ऐसा कहती थीं कि 'जब तक मुझे आँखों से दिखाई देता है, तब तक मुझे कोई हर्ज नहीं है'। थोड़ा खा सकती थीं, चल-फिर नहीं सकती थीं, तो फिर मैं उनके पास बैठे-बैठे क्या करता ? अतः रोज़ सहजात्म स्वरूप का मंत्र बुलवाता रहता था। मैं बुलवाता था तो वे बोलती थीं। मुझे ज्ञान नहीं हुआ था उस समय। यों तो उनके मन में ऐसी इच्छी थी कि 'अभी तो मेरी आँखें अच्छी हैं तो मुझे कोई हर्ज नहीं है'। एक बार मैंने पूछा था, 'बा, अब जाना है ?' तब कहा 'नहीं, शरीर अच्छा है, मेरी आँखें-वाँखें अच्छी हैं'। तो मैं समझ गया कि अंदर से इनकी जाने की नीयत नहीं है । 'मुझे यह रास आ गया है' कहते हैं । चौरासी साल हो गए थे। इतनी परेशानियाँ थीं फिर भी अभी यह नहीं छूटता कि 'रास आ गया है ' ।
अब मुझे तो मातृप्रेम रहेगा ही न ? मातृभक्ति रहेगी न? लेकिन किसलिए? मैं तटस्थ रूप से देखता था कि 'ओहोहो ! मनुष्यों के स्वभाव