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ज्ञानी पुरुष (भाग - 1)
कहा, 'नहीं, नज़दीक ही अपना जो खेत हैं, वहाँ जाना' । मैंने कहा, 'खेत पर जाकर क्या करना है ?' तब उन्होंने कहा, 'वहाँ पर आम के पेड़ लगाए हुए हैं, हमने दसेक आम के पेड़ लगाए हैं, तो रास्ते में से बाहर से एक थैली में थोड़ा दड़ ( उपजाऊ मिट्टी) ले जाना । और थोड़ाथोड़ा दड़ डालकर आना' । अपने यहाँ दड़ होता है न...
प्रश्नकर्ता: मिट्टी (दड़), हाँ।
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दादाश्री : रोड पर से मिट्टी ले जाकर उनमें डालना, जब भी समय हो तब। दड़ डालकर आओगे तो फिर आपका घूमना हो जाएगा और कसरत भी हो जाएगी। फादर से मना नहीं कर सकते थे इसलिए थोड़ा-बहुत करते थे। फादर को मना नहीं किया लेकिन मैंने कहा, 'मुझे आम के पेड़ का लालच नहीं है, आम खाने का कोई लालच नहीं है । यह काम मेरा नहीं है । जिन्हें आम खाने हों वे डालें'। तो कुछ समय बाद जब वह खेत बेचा तब मैंने उनसे कहा कि, 'देखो अगर आम होते तो पेड़ के साथ ही बिक जाते न ! यह धूल - वूल डालना सब बेकार ही जाता न!' आम किसने खाए ? अरे ! छोड़ो न यह बात ! कहाँ किसानों के नियम और यह सब कहाँ चला गया ! मैं जानता हूँ इस दुनिया का रिवाज़, जिसके हाथ में खेत है उसी के आम । बाद में खेत पर से आम घर पर ला सकते हैं या नहीं ?
प्रश्नकर्ता : बेचने के बाद तो नहीं ला सकते।
दादाश्री : तो फिर हमारा धूल डालना बेकार जाएगा न ? दड़ डालना बेकार जाएगा न ? फिर भी हमने क्यों डाला था ?
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प्रश्नकर्ता : यह तो दृष्टि पर आधारित है । दृष्टि बदल जाए तो वह दड़ ठीक है, दूसरे के पास चला गया।
दादाश्री : नहीं, लेकिन यह सब फँसाव है ! इसलिए मेरे पिता जी ने कहा कि 'इसे अंदर से पता होगा कि ऐसा होने वाला है!' मैंने कहा, ‘आपको जो मानना है वह मानिए' । तब उन्होंने कहा, 'तेरी जन्मपत्री बहुत अच्छी है !'