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ज्ञानी पुरुष (भाग-1)
दादाश्री : विचार नहीं बिगड़ने चाहिए बिल्कुल भी, आर्तध्यानरौद्रध्यान नहीं होना चाहिए। आइए, पधारिये आपका ही घर है'। ऐसी पोलिश नहीं करनी है हमें। पोलिश नाम मात्र को भी नहीं होनी चाहिए, साहजिक। जो हो वह दे दो। यदि सब्जी नहीं हो तो मत देना, अचार निकालकर दे देना। साफ-साफ कह देना कि आज सब्जी नहीं है भाई, चलेगा? लेकिन प्रेम से देना। रोटी खाने को तैयार है यह दुनिया। आप जो भी प्रेम से दो, यह दुनिया वह खाने को तैयार है। ये लोग खाना खिलाने वालों से परेशान हो गए हैं। प्रेम से दी गई मोटी रोटी लोगों को पसंद है। अतः यदि प्रेम से खिलाया तो बहुत हो गया।
जगत् प्रेम ढूँढ रहा है, चीजें नहीं प्रेम की ज़रूरत है, अन्य कोई ज़रूरत नहीं है। जगत् प्रेम ढूंढ रहा है, चीजें नहीं ढूँढ रहा। वहाँ पर तू भोजन माँग रहा है? अगर तुझ पर प्रेम रखते हैं तो तुझे ऐसा लगता है कि बहुत अच्छा है। कोई बुराई नहीं करनी है न! खिचड़ी-कढ़ी खिलाएँ, तब भी? हाँ। और अगर बुराई करें तो भी हर्ज नहीं है। चाहे कुछ भी हो फिर भी प्रेम से खिलाओ। हाँ, इंसान को भूख के समय पर भोजन चाहिए। क्या वह उसके घर पर खिचड़ी-कढ़ी नहीं खाता है ? तो फिर अपने यहाँ क्यों नहीं खाएगा? वह अपने घर पर रात को खाता होगा तो अपने यहाँ दिन में खिलाएँगे। स्टॉक में जो भी हो वह दे देना। अपने लिए तो प्रेम ही भोजन है।
प्रश्नकर्ता : स्टॉक ही न हो तो? दादाश्री : किस चीज़ का। प्रश्नकर्ता : रोटी या कुछ भी नहीं हो तो?
दादाश्री : नहीं हो तो क्या हर्ज है? आप कहना, 'बैठिए जी, खाने को कुछ भी नहीं है, आज खाली है। अभी चना-नमकीन मँगवा देते हैं। ये छः आने हैं मेरी जेब में, उसमें से हम सभी खा लेंगे। चलो, चाय और नाश्ता कर लेते हैं'।