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[1.2] निर्दोष ग्राम्य जीवन
दादाश्री : तो फिर नंगे घूमते थे, उसका गुणा और इन्हें बहन की तरह देखते थे, उसका गुणा करें तो यह कैसा कहलाएगा? नंगे घूमते थे उस हिसाब से रस्टिक कहलाते थे, लेकिन बहन की तरह माना, वह?
प्रश्नकर्ता : हाँ, तो उसका बहुत बड़ा जमा हो गया न, दादा। दादाश्री : मिलान तो करना पड़ता है न! वर्ना फिर कैसा लगेगा? प्रश्नकर्ता : उस समय वाली समझ शक्ति का आधार था।
अत्यंत निर्दोषता भरा ग्राम्य जीवन प्रश्नकर्ता : इतना निर्दोष ग्राम्य जीवन?
दादाश्री : बड़ौदा शहर भी नहीं देखा था लोगों ने। आजकल के जो संडास हैं न, वैसा संडास देखा होता न, तो मन में कितना मज़ा आ जाता कि 'यह क्या है। ऐसा कहते। कोई बताए, 'यहाँ पर संडास!' 'नहीं, ऐसा मत कहना, ऐसा नहीं कहते'। देवी-देवता की जगह समझते थे। उस समय ऐसी समझ थी। डेवेलपमेन्ट नहीं था न कुछ भी! गाँव के हाई स्कूल थे। उन दिनों ऐसा कुछ देखा नहीं था न!
कितने ही लोगों ने तो उन दिनों ट्रेन भी नहीं देखी थी। हमारे यहाँ छोटी गाड़ी आई थी, बड़ी गाड़ी नहीं देखी थी। छोटी गाड़ी के इंजन देखे थे।
हमारे गाँव के आसपास जो थे न, तो हम लोगों ने रेलवे का इंजन ही पहली बार देखा था, पंद्रह साल के हुए तब। इंजन ही पहली बार देखा था। यह कितना बड़ा है, कहा था! यह पूरी गाड़ी को ले जाता है, उसे खींच सकता है।
प्रश्नकर्ता : हाथी से भी बड़ा है, ऐसा कहते थे।
दादाश्री : हाथी भी नहीं देखा था न, भाई! जिसने हाथी देखा होता उसे झंझट है न! ऐसी अत्यंत निर्दोषता, कुछ भी देखा ही नहीं था
न!