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ज्ञानी पुरुष ( भाग - 1 )
दादाश्री : तभी खुद ऐसा कह सकता है न कि मैं सूबेदार नहीं बनूँगा । पचास रुपए में पान की दुकान लगाऊँगा लेकिन मुझे ऊपरी नहीं चाहिए ।
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'आई डोन्ट वॉन्ट टू सर्व एनीबडी'
मुझे कोई ऊपरी नहीं चाहिए। दूसरा मैंने यह तय किया था कि किसी की नौकरी भी नहीं करूँगा । मुझे कहीं लोगों की नौकरी करने के लिए जन्म नहीं दिया गया है । मैंने यह बचपन से ही तय कर लिया था कि अगर नौकरी करनी पड़ी तो इस जीवन का कोई अर्थ ही नहीं है न ! नॉनसेन्स चीज़ है वह । हम तो छोटी से छोटी, कोई पान की दुकान जैसी दुकान लेकर बैठ जाएँगे ताकि हमें जब भी, बारह बजे या एक बजे जाना हो तब अपने घर जाकर सो सकते हैं, दुकान बंद करके ।
नौकरी करना तो मुझे बहुत ही बड़ा दुःख लगता था । यों ही जाना अच्छा है लेकिन नौकरी का मतलब तो बॉस मुझे डाँटेगा ! सब से बड़ा रोग है यह! लेकिन उस रोग ने मुझे बहुत प्रकार से बचाया ।
मैं तो नौकरी करने वाला इंसान ही नहीं था । मुझसे तो नौकरी हो ही कैसे पाती ? नौकरी रास ही नहीं आती थी । यदि सूबेदार बना दो फिर भी मुझे नौकरी नहीं चाहिए। तभी तो मैंने कहा न, मुझे सूबेदार नहीं बनना है। लोग क्लर्क बनने में भी खुश थे और मुझे सूबेदार बनने की भी इच्छा नहीं थी क्योंकि मेरा ध्येय क्या था ? और चाहे कैसी भी खुमारी हो पर मैं किसी की सर्विस तो करूँगा ही नहीं । आई डोन्ट वॉन्ट टू सर्विस एनीबडी । सर्विस करने का मेरा काम ही नहीं है । मैं पान की दुकान लगा लूँगा लेकिन स्वतंत्र व्यापार करूँगा।
इतनी तुमाखी (हेकड़ी, घमंड) ! क्या बैंक में रुपए थे ? नहीं! रुपए-वुपए नहीं थे लेकिन ऐसा रौब था अंदर ! और फिर वह भी कुरूप रौब ! कैसा? सुंदर रौब हो तो बात अलग है, रौब भी कुरूप !
मैंने तो भगवान जाने पिछले जन्म में ऐसे भाव किए थे कि ये जिंदगी लोगों को बेच नहीं देनी है । इतनी अच्छी जिंदगी बेच नहीं देनी है ! अतः 'नौकरी तो करूँगा ही नहीं', ऐसा तय किया था ।