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ज्ञानी पुरुष (भाग-1)
एक में से बनाए दो पान प्रश्नकर्ता : ज्ञानी की पुद्गल की करामात भी हमें जानने में मज़ा आता है।
दादाश्री : बचपन में रोज़ पान खाने जाता था। तो एक दिन एक दोस्त साथ में था लेकिन मेरे पास पैसे तो एक ही पान के थे। तो क्या हो सकता था? लेकिन मैंने पान वाले से कहा कि तू रोज़ दो, डबल पान देता है तो आज तीसरा रखकर बनाना। पान वाले ने कहा 'वह ठीक लगेगा?' मैंने कहा, 'लगेगा'। तो तीन पान वाला बीड़ा लिया फिर उसमें से एक पान निकालकर दूसरा कत्था लगाया हुआ पान उस पर घिसकर दूसरा पान बनाया और दोस्त को दे दिया। हम बचपन से ही जागृति पूर्वक रहते थे। इस तरह से रहते थे कि हम से काँच के प्याले फूट न जाए।
उड़ा नहीं छींटा कपड़े धोने में बचपन में हमारे वहाँ खेतों में पम्प रखते थे, बोइलर का पानी ठंडा करने के लिए। उसमें गरम पानी निकलता था, फ्री ऑफ कॉस्ट। गरम निकलता था इसलिए वहाँ पर कपड़े ले जाकर धो देते थे। फिर जो एक आखिरी कपड़ा बचता (पहना हुआ कपड़ा), उसे इस तरह से पानी धीमा करके एक तरफ लाकर धो देते थे ताकि छींटे वगैरह न उड़ें। ज़रा भी छींटे नहीं उड़ते थे। छींटे भी नहीं उड़ें, उस तरह से यों थोड़ा सा नीचे रखकर नहाए-धोए। अगर साबुन के छींटे उड़ते तो वापस धोना पड़ता। सत्रह साल की उम्र में इतनी बुद्धि तो थी। इतनी बुद्धि भी न हो तो किस काम का? लेकिन जैसा इसमें (व्यवहार में) होता है, वही तरीका यहाँ पर (ज्ञान में) भी है।
सभी कपड़े धो देते थे फिर। नहाने के बाद एक कपड़ा बचता था, उसे भी धोना तो पड़ता ही था न? लेकिन छींटे न उड़ें, उस तरह से संभालकर धो देते थे। पहले दूसरे कपड़े धो दिए साबुन डालकर, ज़ोर-ज़ोर से कूटकर। उस समय तो यदि साबुन उड़कर सिर पर लगता