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ज्ञानी पुरुष (भाग-1)
दादाश्री : उन दिनों बिस्कुट वगैरह नहीं थे इसलिए चाय के साथ पकौड़े होंगे लेकिन हम नहीं खाते थे। चाहे कैसी भी हो लेकिन ईरानी की चाय अच्छी, मुझे तो शायद उसका (ईरानी का) चेहरा देखने से ही चाय अच्छी लगती होगी।
गए पकौड़े खाने तीन मील दूर प्रश्नकर्ता : पकौड़े तो आपको अच्छे लगते थे न, तो कहाँ खाते थे?
दादाश्री : मैं पकौड़े खाने गया था बचपन में। एक जगह पर तीन मील दूर पकौड़े बहुत अच्छे बनाते थे। वह झोपड़ी में बनाता था। वहाँ पर बाज़ार में अच्छी होटलें छोड़कर वहाँ भैयादादा के झोपड़े में खाने गए थे। खाने के बाद मैंने कहा, 'कहना पड़ेगा भाई! जिसका अच्छा हो वह दूर दुकान लगाए, तब भी चलती है।
रास्ते में मिल रहे हैं तो यहीं खा ले न चुपचाप। तो कहते थे, 'नहीं, भैयादादा के वहाँ मज़ा आता है। और तब व्यक्ति को वह टेस्ट याद रह जाता था कि ऐसा टेस्ट है उन पकौड़ों का। अगर किसी दूसरे के पकौड़े खिला दें, तब कहते थे 'ये उनके नहीं हैं। भैयादादा के नहीं हैं ये पकौड़े'। इतने याद रह जाते थे वे।
हमें भाती थीं जलेबियाँ लेकिन खीर से चिढ़ थी प्रश्नकर्ता : आप होटल में जाकर और क्या खाते थे?
दादाश्री : काम पर जाने से पहले होटल जाते थे, और जलेबी बहुत अच्छी लगती थी तो सभी मित्र मिलकर, जलेबी का दोना मँगवाकर दो-चार खाते थे। यों आराम से नाश्ता करके हम काम पर जाते थे। लेकिन डायरी में होटल का खर्च नहीं लिखते थे, 'फुटकर खर्च' लिखते थे।
प्रश्नकर्ता : जलेबी की तरह दूसरी मिठाइयाँ भी भाती थीं? दादाश्री : नहीं! एक बार बचपन में जब मैं खीर खा रहा था तब