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ज्ञानी पुरुष (भाग-1)
फिर यों मौज-मस्ती करते-करते मैंने परीक्षा दी तो अपना हिसाब आ गया। 1927 (विक्रम संवत 1983-84) में मैट्रिक में फेल हुआ! आराम से फेल हुआ। मुझे जो चाहिए था, वही हो गया।
प्रश्नकर्ता : मैट्रिक में आपको पास ही नहीं होना था न, जानबूझकर...
दादाश्री : क्योंकि इच्छा ही नहीं थी पास होने की, नीयत ही खराब थी। उस तरफ ध्यान ही नहीं दिया न! यदि ध्यान दिया होता तो पास हो जाता लेकिन परीक्षा में ध्यान ही नहीं दिया। यदि ध्यान देते तब पास होते न?
अंग्रेजी में पढ़ना नहीं आया मुझे। तो उसमें कुछ पढ़ा-करा नहीं था तो पास कौन करता हमें ? तो मैट्रिक में फेल हो गया, आराम से।
प्रश्नकर्ता : हं, ठीक है। तो इस तरह आपने लंदन जाने से मना किया।
दादाश्री : मना नहीं किया था, पास ही नहीं हुआ न खुद! पास होता तो मुझे आगे भेजते न? इसलिए उनकी धारणा टूट गई। उनकी सूबेदार बनाने की इच्छा थी लेकिन देखो न, सूबेदार नहीं बना तो नहीं ही बना न! देखो न, नहीं तो क्या हम बिल्कुल ही मूर्ख थे?
मुझे पढ़ना था यह, 'सिर पर ऊपरी नहीं चाहिए' आपको कॉलेज में पढ़ना था, तो सभी निमित्त मिल गए थे न?
प्रश्नकर्ता : ऐसा है कि जैसी भावना होती है वैसी सिद्धि प्राप्त हो जाती है?
दादाश्री : हाँ, आपको कॉलेज में पढ़ना था तो सारे निमित्त मिल गए न? और नहीं पढ़ना हो न, जैसे कि मुझे नहीं पढ़ना था, तो मैट्रिक में फेल होकर रहा। मेरी नीयत ही नहीं थी न, पढ़ने की। यानी कि जिसे पढ़ना हो, उसे सब मिल जाता है।
मुझे पढ़ना था यह कि 'सिर पर कोई ऊपरी नहीं चाहिए, बाप