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[2.2] मैट्रिक फेल
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अंत में पान की दुकान लगा लूँगा लेकिन स्वावलंबी रहूँगा
आखिर में एक दोस्त ने मुझसे कहा कि नौकरी के बगैर तू करेगा क्या? बड़े भाई निकाल देंगे तब तू क्या करेगा? मैंने कहा, 'मैं तो, जो मेरी मर्जी में आएगा, वह काम करूँगा नहीं तो घर आकर सो जाऊँगा। लेकिन काम करके मैं स्वाश्रयी रहूँगा, मैं पराश्रयी नहीं रहूँगा। छोटा-मोटा ही सही लेकिन व्यापार करूँगा। कुछ न हुआ तो आखिर में पान की दुकान लगा दूंगा'।
मुझे ठीक लगेगा उस समय दुकान बंद करके घर जाकर सो जाऊँगा, नहीं तो शास्त्र पढ़ने लगूंगा। हमें दोपहर के डेढ़-दो बजे सोने की आदत है तो घर जाकर दोपहर को बारह बजे खाना खाकर आराम से सो जाना हो तो दुकान बंद करके आराम से सो तो सकते हैं! कोई ऊपरी नहीं होगा न! पान खत्म हो गए और घर जाकर सो गए, बस! शाम को चार बजे आकर वापस खोलेंगे और तब फिर पूरे दिन पान चुपड़ते रहेंगे। लेकिन यह परतंत्रता नहीं पुसाएगी। ऊपर बॉस डाँटता रहे बिना बात के!
अटूट भरोसा खुद के प्रारब्ध पर स्वतंत्र जीवन ही पसंद था। हालांकि व्यापार रेग्युलर (सही तरीके से) करना है लेकिन जीवन स्वतंत्र। मित्र लोग कहें कि चलो चार दिन कहीं पर जाएँ तो बंद करके चल पड़ते थे। प्रारब्ध को मानने वाला इंसान था कि 'मैं अपना लेकर आया हूँ।
प्रश्नकर्ता : ठीक है।
दादाश्री : मेरा सभी सामान लेकर आया हूँ, इसलिए फिर मुझे और कोई परेशानी नहीं आएगी न? कुछ प्रयत्न भी करने चाहिए। प्रयत्न ही करने हैं, बस। फिर अपने आप ही फल मिलता रहेगा न! उससे अपनी गाड़ी चलती रहेगी।
ज़रूरतें कम इसलिए आता है निभाना थोड़े में पान की दुकान हो तो थोड़े-बहुत रुपए बचेंगे तो घर चलाएँगे