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[2.1] पढ़ाई करनी थी भगवान खोजने के लिए
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रौब जमाने के लिए घंटी बजने के बाद स्कूल जाते थे प्रश्नकर्ता : आपके स्कूल जीवन की बात बताइए न !
दादाश्री : स्कूल में हम घंटी बजने के बाद ही जाते थे, वह सब हमें दिखाई देता है। मास्टर जी रोज़ चिढ़ते रहते थे। हम से कह नहीं पाते थे और चिढ़ते थे।
प्रश्नकर्ता : घंटी बजने के बाद ही जाते थे? ।
दादाश्री : हाँ, स्कूल में घंटी बजने की आवाज़ सुनने के बाद ही घर से निकलता था और हमेशा मास्टर जी की फटकार सुनता था! अब मास्टर जी को क्या पता चले कि मेरी प्रकृति क्या है? हर एक का 'पिस्टन' अलग-अलग होता है। बचपन से ही मेरी प्रकृति ऐसी थी कि
ऑल्वेज़ लेट। हर एक काम में हमेशा 'लेट' था, कोई भी जल्दबाज़ी की ही नहीं। घंटी बजने के बाद ही घर से निकलता था, ऐसी प्रकृति।
प्रश्नकर्ता : आप घंटी बजने के बाद ही क्यों जाते थे?
दादाश्री : ऐसा रौब था! मन में ऐसी खुमारी (गौरव, गर्व, गुरूर) थी! लेकिन तब सीधे नहीं हुए तभी यह दशा है न! सीधा इंसान तो घंटी बजने से पहले ही जाकर बैठ जाता है।
प्रश्नकर्ता : रौब मारना उल्टा रास्ता कहलाता है ?
दादाश्री : यह तो उल्टा रास्ता ही है न! भाई साहब घंटी बजने के बाद जाते थे और मास्टर जी उससे पहले ही आ चुके होते थे! मास्टर जी देर से आएँ तो चल सकता है लेकिन बच्चों को तो नियम से, घंटी बजने से पहले ही आ जाना चाहिए न! लेकिन यह आड़ाई (अहंकार का टेढ़ापन), 'टीचर, अपने मन में क्या समझते हैं' ऐसा कहते थे। लो! 'अरे, तुझे पढ़ने जाना है या बाखड़ी बाँधनी (लड़ने के लिए तैयार रहना) है ?' तब कहता था, 'नहीं, पहले बाखड़ी बाँधनी है'। उसे बाखड़ी बाँधना कहते हैं। आपने बाखड़ी शब्द सुना है? हाँ! तो ठीक है।
प्रश्नकर्ता : तो क्या मास्टर जी आपसे कुछ भी नहीं कह सकते थे?