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[1.4] खेल कूद
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अत: मैं कभी भी अपनी जिंदगी में पतंग खरीदकर नहीं लाया। ये लोग जब डोरी पकड़ते हैं, तब हाथ कट जाते हैं तो कहते हैं, 'देखो मेरे हाथ कैसे हो गए हैं !' 'तो मैं क्या करूँ? तुम उड़ाते हो और मैं देखता हूँ'। कीमत तो देखने की है! उड़ाने वाले तो, जो मूर्ख लोग होते हैं, वे उड़ाते हैं। उनमें समझ नहीं होने की वजह से ऐसा सब चलता रहता है।
प्रश्नकर्ता : वह समझ में नहीं आया कि 'देखने की कीमत है', वह किस प्रकार से?
दादाश्री : पतंग को देखते हैं न, तो हमारी आँखों से सूर्यनारायण भी कुछ-कुछ दिखाई देते हैं। उससे बहुत उत्तम फल मिलता है, इस मकर संक्रांति के टाइम पर। यह सूर्य को देखने के लिए ही है, यह पतंग उड़ाने के लिए नहीं है। उड़ाना हो तो चाहे कैसे भी बाँध दो और अगर शक्ति होगी तो वह ऊपर जाती रहेगी अपने आप ही, डोरी खुलती रहेगी। लोग मदहोशी में उसे उड़ाने जाते हैं बेचारे! होश ही नहीं है न कुछ!
__ चले हैं बचपन से ही लोक प्रवाह के विरुद्ध
मैं तो बचपन से ही कहता था, 'किस तरह के लोग हैं, ये बच्चे?' पतंग उड़ाने का क्या मतलब है? लोगों को देखकर सार निकालते हैं कि मुझे इसमें खुशी मिली। लोगों ने जो बताया, उस पर से खुद ने सुख मान लिया।
यह तो लोक प्रवाह है, उसमें यह साइकोलॉजिकल इफेक्ट, कैसी उड़ी... कैसी उड़ी... कैसी उड़ी... कैसी उड़ी! अरे भाई, इसमें तेरा क्या है? दो-चार आने की जलेबी लाकर खाई होती तो अच्छा था, पेट में तो जाता, ये तो यों ही हवा में उड़ती हैं!
प्रश्नकर्ता : लेकिन दादा, एक दिन के लिए तो बाकी सारी परेशानियाँ भूल जाते हैं न!
दादाश्री : हाँ, लेकिन परेशानी भूलने के दूसरे रास्ते भी हैं न!
प्रश्नकर्ता : हाँ, लेकिन जिनके पास दूसरे रास्ते नहीं हों, उनके लिए तो यह एक अच्छा एस्केप (बचाव) है न!