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ज्ञानी पुरुष (भाग-1)
दादाश्री : नहीं! मैं नहीं गया था। इस तरह तो कभी-कभी ही जाना होता था, रोज़ नहीं जाना होता था। भाँजा था न! भाँजे की इज़्ज़त करते थे।
प्रश्नकर्ता : हाँ, भाँजे-भाँजियों को बहुत संभालते हैं।
दादाश्री : हम वहाँ देवता जैसे माने जाते थे। वहाँ गाँव में तो सभी हमें देवता मानते थे। भाँजों-वाँजों सभी को देवता मानते थे। बड़ाबड़ा दहेज दिया हुआ होता था इसलिए उन्हें तो देव मानते थे, इसलिए हम ऐसा हल्का कार्य नहीं कर सकते थे। उन्हें छू भी नहीं सकते थे और वे छूने भी नहीं देते।
इतना छोटा सा था फिर भी बड़े लोग भाँजे जी, भाँजे जी की तरह रखते थे। अपमान तो मैंने जिंदगी में कभी देखा ही नहीं था, किसी भी जगह पर। हमारे गाँव में भी नहीं देखा था और बाहर भी नहीं देखा था।
मकर संक्रांति वास्तव में सूर्य को देखने के लिए
प्रश्नकर्ता : सभी छोटे बच्चे जिस तरह के खेल खेलते हैं, आप भी वैसे ही खेल खेलते थे?
दादाश्री : बचपन में एक दोस्त आया था। उसने पतंग उड़ाई और मैंने पूछा कि 'इससे क्या फायदा होता है ? उड़ाने में क्या फायदा है ?' उसने कहा 'इसमें तो बहुत मज़ा आता है'। तब मैंने कहा, 'अरे, लेकिन उसमें तो फिर हाथ ऐसे-ऐसे करना पड़ता है न!' तब मैं उसे देखता रहा फिर, 'नीचे ठोकर लग रही है या नहीं, वह नहीं देखते थे और बस भाग-दौड़ करते रहते थे'। मैंने कहा, 'यह व्यापार मुझे नहीं पुसाएगा। मुझे अघटित व्यापार की ज़रूरत नहीं है, तू कर भाई'।
जब मैं छोटा था तब लोग पतंग उड़ाते थे और मैं दोस्तों के साथ बैठकर देखता था। तब दोस्त कहते थे कि 'तीन साल हो गए कभी तुम पतंग और डोरी लाए क्या?' तब मैंने कहा, 'मेरे पास पैसे हैं, तुझे ज़रूरत हो तो ला देता हूँ। यों ऊपर देखते रहना और ठुमके लगाना मेरा काम नहीं है।