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पिंडनियुक्ति पांचवें अध्ययन पर ६७१ (-३२४) गाथाएं लिखीं। मूलग्रंथ से पूरक ग्रंथ की गाथाएं इतनी अधिक कैसे हो सकती हैं, यह अन्वेषणीय बिन्दु है।
• इस संदर्भ में एक प्रश्न यह उपस्थित होता है कि दशवैकालिक के पिण्डैषणा अध्ययन पर जो नियुक्ति-गाथाएं मिलती हैं, उनका समावेश पिण्डनियुक्ति में भी होना चाहिए लेकिन वे गाथाएं उसमें नहीं मिलती हैं। यदि यह माना जाए कि दशवैकालिक नियुक्ति के लिए नियुक्तिकार ने कुछ गाथाएं अलग बना दी और पिंडनियुक्ति की अलग रचना की तो फिर इसे स्वतंत्र ग्रंथ मानने में ही क्या बाधा है?
• बृहत्कल्पभाष्य की टीका में पिण्डकल्पिक के प्रसंग में पिंडैषणा अध्ययन के साथ 'अत्र पिण्डनियुक्तिः सर्वा वक्तव्या' का उल्लेख है। साथ ही यह भी उल्लेख है कि पिण्डनियुक्ति ग्रन्थान्तर है अत: उसका अपना स्वतंत्र स्थान है।
__ • नियुक्तिकार प्रायः मूल ग्रंथ में आए महत्त्वपूर्ण शब्दों की निक्षेपपरक व्याख्या प्रस्तुत करते हैं पिण्डनियुक्ति में पिण्ड और एषणा के अतिरिक्त दशवैकालिक के किसी शब्द की व्याख्या नहीं है। दूसरी बात पिण्डनियुक्ति जितनी विषयबद्ध और क्रमबद्ध रचना हैं, उतनी क्रमबद्धता और विषयप्रतिबद्धता नियुक्ति-साहित्य की रचना-शैली में नहीं मिलती है।
• ओघनियुक्ति और पिण्डनियुक्ति को कुछ जैन सम्प्रदाय ४५ आगमों के अन्तर्गत मानते हैं। इनकी गणना मूलसूत्रों में भी होती है। अन्य किसी नियुक्ति को आगमों के अन्तर्गत नहीं रखा गया है। इस बात से भी यह स्पष्ट होता है कि भद्रबाहु ने अन्य नियुक्तियों से पूर्व इन दोनों की स्वतंत्र रचना की होगी अथवा नियुक्ति-साहित्य की लोकप्रियता देखकर उन्होंने इन दोनों ग्रंथों की स्वतंत्र रचना कर दी। विषयवस्तु की दृष्टि से आचार्य महाप्रज्ञ ने इसे दशवैकालिक सूत्र का पूरक माना है। नियुक्ति और भाष्य का पृथक्करण : एक विमर्श
जिन ग्रंथों में नियुक्तियों पर भाष्य लिखे गए, उनमें आवश्यक नियुक्ति को छोड़कर प्रायः दोनों ग्रंथ मिलकर एक ग्रंथ रूप हो गए, जैसे-बृहत्कल्प, व्यवहार और निशीथ आदि। आचार्य मलयगिरि ने बृहत्कल्प भाष्य की पीठिका में यही उल्लेख किया है। पिण्डनियुक्ति और ओघनियुक्ति में भी ऐसा ही क्रम मिलता है। इसकी हस्तप्रतियों में नियुक्ति और भाष्य की गाथाएं एक साथ लिखी हुई हैं, इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इस ग्रंथ के लेखन-काल तक नियुक्ति और भाष्य दोनों मिलकर एक ग्रंथ रूप हो गए थे।
१. बृभा ५३२, टी पृ. १५४ ; सा च ग्रन्थान्तरत्वात् स्वस्थाने सम्मिश्रण हो गया है। जैन विश्व भारती से प्रकाशित एव स्थिता प्रतिपत्तव्या।
आवश्यक नियुक्ति खण्ड १ में पृथक्करण का प्रयास २. यद्यपि आवश्यक नियुक्ति की स्वतंत्र प्रतियां मिलती हैं ।
लेकिन उसमें भी अन्यकर्तकी एवं भाष्य की गाथाओं का ३. बृभापी. पृ. २ ; सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिर्भाष्यं चैको ग्रंथो जातः ।
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