________________
१६
पिंडनिर्युक्ति
पूरक मानते हैं। उनका मानना है कि बृहत्काय ग्रंथ होने के कारण बाद में इसे स्वतंत्र ग्रंथ का स्थान दे दिया गया। स्वयं मलयगिरि ने ग्रंथ के प्रारम्भ में इस बात का उल्लेख किया है कि दशवैकालिक की नियुक्ति चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु स्वामी ने की। उसमें पिण्डैषणा नामक पांचवें अध्ययन की नियुक्ति बहुत बड़ी होने के कारण उसे स्वतंत्र रूप से स्थापित कर दिया, जिसका नाम पिण्डनिर्युक्ति रख दिया गया ।' आचार्य मलयगिरि के इस उल्लेख से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि उनके समय तक पिण्डनिर्युक्ति दशवैकालिक निर्युक्ति के पूरक ग्रंथ के रूप में समझी जाने लगी थी । आचार्य मलयगिरि दूसरा तर्क प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि यह स्वतंत्र ग्रंथ नहीं है इसीलिए पिण्डनिर्युक्ति के प्रारम्भ में मंगलाचरण नहीं किया गया है। क्योंकि दशवैकालिक नियुक्ति के प्रारम्भ में मंगलाचरण कर दिया गया है।
इस संदर्भ में यह तर्क प्रस्तुत किया जा सकता है कि मंगलाचरण की परम्परा बाद में प्रारम्भ हुई है। प्राचीनकाल में ग्रंथकार संग्रहणी गाथा के द्वारा अपने ग्रंथ का प्रारम्भ करते थे । दशवैकालिक नियुक्ति में भी मंगलाचरण की गाथा बाद में प्रक्षिप्त हुई है। इसका प्रमाण है कि दोनों चूर्णिकारों ने मंगलाचरण वाली गाथा का न उल्लेख किया है और न ही व्याख्या । मंगलाचरण वाली गाथा केवल हारिभद्रीय टीका में मिलती है। बहुत संभव लगता है कि दशवैकालिक नियुक्ति की प्रथम मंगलाचरण की गाथा भद्रबाहु द्वितीय अथवा भाष्यकार द्वारा बाद में जोड़ी गई हो । जो आचार्य हरिभद्र के समय तक निर्युक्ति गाथा के रूप में प्रसिद्ध हो गई थी।
इसी प्रकार आचारांग नियुक्ति की मंगलाचरण की गाथा का भी चूर्णिकार ने कोई संकेत अथवा व्याख्या नहीं की है। वहां तीसरी गाथा के लिए 'एसा बितिया गाहा' का उल्लेख है। इस उल्लेख से स्पष्ट है कि चूर्णिकार के समय तक आचारांग नियुक्ति के मंगलाचरण की गाथा नहीं थी। इसके अतिरिक्त छेद एवं मूलसूत्रों का प्रारंभ भी मंगलाचरण से नहीं हुआ है। मंगलाचरण की परम्परा लगभग विक्रम की दूसरीतीसरी शताब्दी के आसपास की है। मलयगिरि की टीका के अतिरिक्त ऐसा उल्लेख अन्यत्र कहीं नहीं मिलता अतः स्पष्ट है कि केवल इस एक उल्लेख मात्र से पिण्डनिर्युक्ति को दशवैकालिक नियुक्ति का अंग नहीं माना जा सकता । दशवैकालिक सूत्र का पूरक ग्रंथ होते हुए भी पिण्डनिर्युक्ति एक स्वतंत्र ग्रंथ है, इसकी पुष्टि में कुछ तर्क प्रस्तुत किए जा सकते हैं
पिण्डनिर्युक्ति में प्रथम संग्रहगाथा के आधार पर पूरे ग्रंथ का विस्तार किया गया है अतः ध्यान
१. मवृ प. १; दशवैकालिकस्य च निर्युक्तिश्चतुर्दशपूर्वविदा भद्रबाहुस्वामिना कृता, तत्र पिण्डैषणाभिधपञ्चमाध्ययननियुक्तिरतिप्रभूतग्रंथत्वात् पृथक् शास्त्रान्तरमिव व्यवस्थापिता, तस्याश्च पिण्डनिर्युक्तिरिति नाम कृतं, पिण्डैषणानिर्युक्तिः । २. मवृ प. १ ; चादावत्र नमस्कारोऽपि न कृतो, दशवैकालिकनिर्युक्त्यन्तर्गतत्वेन तन्नमस्कारेणैवात्र विघ्नोपशमसम्भवात्, शेषा तु निर्युक्तिर्दशवैकालिकनिर्युक्तिरिति स्थापिता ।
३. जैन विश्व भारती द्वारा प्रकाशित नियुक्ति पंचक ग्रंथ में विस्तार से इस संदर्भ में चर्चा की गई है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org