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पिंडनियुक्ति
अथवा द्वितीय भद्रबाहु ने? नियुक्ति-साहित्य की प्राचीनता एवं कर्तृत्व के संदर्भ में विस्तृत चर्चा नियुक्तिसाहित्य के अगले प्रकाश्यमान खंड में की जाएगी।
डॉ. सागरमल जैन के अनुसार चतुर्दशपूर्वी आचार्य भद्रबाहु बहुत पहले हो गए तथा द्वितीय भद्रबाहु का समय बहुत बाद का है अत: बीच में भद्रबाहु नामक कोई और आचार्य होने चाहिए। उनके अनुसार गौतमगोत्रीय आर्यभद्र, जो ईसा की दूसरी शताब्दी में हुए हैं, उन्हें नियुक्तियों का कर्ता माना जा सकता है। भद्रान्वय उल्लेख युक्त पांचवीं शताब्दी का अभिलेख भी मिलता है क्योंकि ये ही ऐसे आचार्य हैं, जिनको नियुक्तिकार मानने से नियुक्ति-रचना का काल सही बैठता है लेकिन उनके इस तर्क को भी पूर्णरूपेण सम्यक् नहीं माना जा सकता क्योंकि आर्यभद्र और भद्रबाहु-इन दोनों नामों में ही साम्य नहीं है फिर भी उनका यह अभिमत इस दिशा में कुछ सोचने को बाध्य करता है।
__ पिण्डनियुक्ति का सबसे प्राचीन उल्लेख जिनदासकृत दशवैकालिक चूर्णि में मिलता है। इस उल्लेख से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि चूर्णिकार जिनदासगणी से पहले पिण्डनियुक्ति की रचना हो चुकी थी क्योंकि चूर्णि-साहित्य का समय छठी, सातवीं शताब्दी माना जाता है। डॉ. सागरमल जैन के अनुसार नियुक्ति साहित्य में ईसा की दूसरी शताब्दी के बाद की विशेष कोई सूचना नहीं मिलती अतः भद्रबाहु द्वितीय इनके कर्ता नहीं हो सकते।
उद्गम, उत्पादन और एषणा के दोषों से सम्बन्धित सारा प्रकरण मूलाचार में पिण्डनियुक्ति से संक्रान्त हुआ है। इस बात को कुछ दिगम्बर विद्वान् भी स्वीकार करते हैं। इस तर्क के आधार पर भी यह संभावना की जा सकती है कि मूलाचार की रचना से पूर्व इसकी रचना हो जानी चाहिए। उत्पादन के दोषों वाली कुछ गाथाएं निशीथ भाष्य में पिण्डनियुक्ति से संक्रान्त हुई हैं, इस आधार पर भी इसका रचनाकाल प्राक्तन सिद्ध होता है।
__ आवश्यक नियुक्ति में प्रतिज्ञात दस नियुक्तियों में पिंडनियुक्ति और ओघनियुक्ति का नामोल्लेख नहीं है, इस बात से ऐसा संभव लगता है कि दस नियुक्तियों की रचना करने के पश्चात् या पहले आचार्य भद्रबाहु ने मुनि की आहारचर्या और सामान्यचर्या का प्रतिपादन करने के लिए दो स्वतंत्र ग्रंथों की रचना की, जिनका नाम उन्होंने पिण्डनियुक्ति और ओघनियुक्ति रखा।
प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि फिर उन्होंने दस नियुक्तियों में इनका उल्लेख क्यों नहीं किया? इसका समाधान यह दिया जा सकता है कि वहां आचार्य भद्रबाहु तीर्थंकर और आचार्यों को वंदना करके उनके द्वारा प्रतिपादित अर्थ-बहुल श्रुतज्ञान की नियुक्ति-रचना की प्रतिज्ञा कर रहे हैं, न कि किसी स्वतंत्र ग्रंथ की रचना करने की। इसीलिए उन्होंने आचारांग आदि सूत्रों पर लिखी नियुक्तियों का नामोल्लेख किया
१. सागर जैन विद्या भारती प. २२२-२४।
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