________________
पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण है। स्वतंत्र ग्रंथ के रूप में जिन दो नियुक्तियों की रचना की,उनका प्रतिज्ञा के अन्तर्गत समावेश नहीं किया, यह संभावना व्यक्त की जा सकती है। वैसे भी ये दोनों ग्रंथ विषयवस्तु एवं आकार की दृष्टि से पूर्णरूपेण स्वतंत्र ग्रंथ की योग्यता रखते हैं।
इसके अतिरिक्त इसमें मुनि की भिक्षाचर्या के जिन नियमों का सूक्ष्म रूप से वर्णन उपलब्ध है, उससे भी इसका काल बाकी सभी नियुक्तियों के समकालीन रखा जा सकता है। पिण्ड और ओघ–इन दोनों नियुक्तियों में अपवाद को प्रकट करने वाली जो गाथाएं हैं, वे भाष्य की या अन्य आचार्यों द्वारा बाद में मिश्रित की गई हैं, ऐसा कहा जा सकता है।
नंदी सूत्रकार ने कालिक और उत्कालिक सूत्रों के अन्तर्गत अनेक ग्रंथों की सूची दी है, उसमें कहीं भी पिण्डनियुक्ति और ओघनियुक्ति का उल्लेख नहीं मिलता है। आश्चर्य इस बात का है कि इन दोनों महत्त्वपूर्ण ग्रंथों को उन्होंने ग्रंथों की सूची में समावेश क्यों नहीं किया? जबकि इनकी रचना उस समय तक हो चुकी थी। इस प्रश्न के समाधान में दो विकल्प संभव हैं• प्रथम तो यह कि देवर्धिगणी क्षमाश्रमण के समय तक ये ग्रंथ इतने प्रसिद्ध नहीं हुए थे। अन्य नियुक्तियों की भांति व्याख्या-साहित्य के अन्तर्गत होने से उन्होंने इनका उल्लेख नहीं किया। • साधु के मौलिक आचार का प्रतिपादक होने के कारण बाद के कुछ आचार्यों ने इन दोनों ग्रंथों को मूल'साहित्य के अन्तर्गत समाविष्ट कर दिया, यह संभावना की जा सकती है। पिण्डनियुक्ति का स्वतंत्र अस्तित्व
___ आगम एवं उसके व्याख्या-साहित्य में पिण्डनियुक्ति का महत्त्वपूर्ण स्थान है। मुनि की भिक्षाचर्या और आहारविधि पर लिखा गया यह मौलिक और स्वतंत्र ग्रंथ है। इस ग्रंथ का महत्त्व इस बात से आंका जा सकता है कि सर्वप्रथम जर्मन विद्वान् लायमन ने जर्मन भाषा में इस ग्रंथ को प्रकाशित किया था।
प्रो. एच. आर कापड़िया ने उल्लेख किया है कि सबसे पहले भावप्रभसूरि ने जैनधर्मवरस्तोत्र में चार मूल सूत्रों का उल्लेख किया है-- १. उत्तराध्ययन २. आवश्यक ३. पिण्डनियुक्ति और ओघनियुक्ति ४. दशवैकालिक। प्रो. विंटरनित्स आदि विद्वानों ने उत्तराध्ययन, आवश्यक और दशवैकालिक के साथ पिण्डनियुक्ति को मूलसूत्र के अन्तर्गत माना है। साध्वाचार से सम्बन्धित वर्णन होने से कहीं-कहीं इसकी गणना छेदसूत्रों के अन्तर्गत भी होती है।
कुछ विद्वान् पिण्डनियुक्ति को दशवकालिक नियुक्ति के पांचवें अध्ययन पिण्डैषणा नियुक्ति की
१. सभी परम्पराएं इनको मूल ग्रंथ के अन्तर्गत स्वीकार नहीं करती हैं। (संपा) २. जैनधर्मवरस्तोत्र ३० टी. पृ. ९४ ; अथ उत्तराध्ययन-आवश्यक-पिण्डनियुक्ति तथा ओघनियुक्ति-दशवैकालिक इति
चत्वारि मूलसूत्राणि। ३. History of the Canonical literature of the Jainas p. 43।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org