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पिण्डनिर्युक्ति : एक पर्यवेक्षण
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से पढ़ने पर स्पष्ट प्रतीत होता है कि यह एक स्वतंत्र रचना है, न कि दशवैकालिक के पांचवें अध्ययन की निर्युक्ति की पूरक । पिण्डनिर्युक्ति ग्रंथ की अंतिम गाथा पर दृष्टिपात करें, तब भी यह प्रतीत होता है कि स्वतंत्र ग्रंथ के रूप में इसकी रचना हुई है और उसी दृष्टि से इसका समापन किया गया है।
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यदि यह ग्रंथ पूरक होता तो दशवैकालिक निर्युक्ति में 'वत्तव्वा पिंडनिज्जुत्ती " उल्लेख नहीं मिलता । यह उल्लेख इस बात की ओर संकेत कर रहा है कि पिण्ड के सम्बन्ध में युक्तियुक्त अर्थ को समझने के लिए यहां पिण्डनिर्युक्ति कहनी चाहिए। अन्यथा कोई भी ग्रंथकार 'वत्तव्वा' शब्द का उल्लेख नहीं करेगा, जैसे आचारांग नियुक्ति में चार चूलाओं की नियुक्ति लिखने के बाद नियुक्तिकार ने स्पष्ट उल्लेख किया है कि पंचम चूलनिसीहं, तस्स य उवरिं भणीहामि (आनि ३६६ ) अर्थात् मैं पंचम चूला निशीथ की नियुक्ति बाद में कहूंगा, वैसे ही जब पिण्डनिर्युक्ति को दशवैकालिकनिर्युक्ति से अलग किया गया, उसके संदर्भ में भी ग्रंथकार कुछ उल्लेख अवश्य करते लेकिन ऐसा न पिण्डनिर्युक्ति में उल्लेख मिलता है और न ही दशवैकालिक नियुक्ति में अतः यह स्वतंत्र ग्रंथ होना चाहिए। प्राचीन लिपिकार एवं ग्रंथकार अनेक गाथाओं को हासिए में 'जहा आवस्सए' 'जहा ओववाइए' आदि उल्लेख कर देते थे, चूंकि पिण्डनिर्युक्ति साधु की आहारचर्या और भिक्षाचर्या पर सर्वांगीण सामग्री प्रस्तुत करती है, पिण्डैषणा को समझने के लिए इससे अच्छा कोई ग्रंथ नहीं था अतः दशवैकालिक नियुक्ति के पांचवें अध्ययन की निर्युक्ति में यह उल्लेख कर दिया गया कि यहां सम्पूर्ण पिंडनिर्युक्ति कहनी चाहिए। प्रारम्भ में विषय साम्य की दृष्टि से सहायक ग्रंथ के रूप में इसका उल्लेख किया गया लेकिन बाद में इसे दशवैकालिक नियुक्ति पूरक ग्रंथ के रूप में स्वीकृत कर लिया गया।
निर्युक्तिकार प्राय: ग्रंथ में आए विशेष पारिभाषिक शब्दों की ही व्याख्या करते हैं । पिण्डनिर्युक्ति के प्रारम्भ में जिन आठ अधिकारों का संकेत है, उससे दशवैकालिक के पांचवें पिण्डैषणा अध्ययन की विषय-वस्तु के साथ कोई सम्बन्ध नहीं बैठता है। इस आधार पर भी कहा जा सकता है कि यह स्वतंत्र ग्रंथ होना चाहिए।
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इसके स्वतंत्र ग्रंथ होने का एक महत्त्वपूर्ण तर्क यह है कि मूलग्रंथ से पूरक ग्रंथ की गाथाएं इतनी अधिक नहीं हो सकतीं। सम्पूर्ण दशवैकालिक पर नियुक्तिकार ने मात्र ३७१ गाथाएं लिखीं और अकेले १. 'वत्तव्वा पिंडनिज्जुत्ती' उल्लेख दशवैकालिक नियुक्ति (२१८/४), (हाटी २३९) में मिलता है । दशवैकालिक की दोनों चूर्णियों में इस गाथा का कोई संकेत एवं व्याख्या नहीं है अतः मूलतः यह गाथा दशवैकालिक नियुक्ति की नहीं होनी चाहिए। भाष्यकार ने साधु की आहारचर्या को सम्यक् रूप से समझाने के लिए 'वत्तव्वा पिंडनिज्जुत्ती' का उल्लेख किया है (देखें निर्युक्तिपंचक पृ. ४९ ) ।
२. जैन विश्व भारती द्वारा सम्पादित दशवैकालिकनिर्युक्ति में ३४९/२ गाथाएं हैं तथा दशवैकालिक हारिभद्रीय टीका में ३७१ गाथाएं हैं। संपादन में नियुक्ति और भाष्य को अलग-अलग करने का प्रयत्न किया गया है, जिसमें अनेक नियुक्तिगत गाथाएं भाष्य की तथा कुछ भाष्य गाथाएं नियुक्ति के रूप में सहेतु सिद्ध की गई हैं।
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